‘Upasthiti’, a poem by Anurag Anant

मेरी उपस्थिति ऐसी रही
कि अनुपस्थित ही रहा सदा
प्राथनाएँ मुझसे निकलकर
मुझमें समाती रहीं
और मौन ही रही मेरी सबसे सार्थक परिभाषा

भाषा में अव्यक्त रहा
और बोलकर कई-कई बार ख़ुद को नष्ट किया
समझदारों की तरह जीने से बचने की ज़िद में
समझदारी ही हाथ लगी हर बार

जीवन भर दुहराई जाती रही
एक ही कत्थई त्रासदी
और मैं एक ही बिन्दु पर
हर बार कील की तरह ठोक दिया गया

जब जलेगी मेरी चिता तो
अलिखित प्रेम पत्र महकेंगे
धुएँ की जगह तुम्हारी स्मृतियाँ उड़ेंगी आकाश में
वर्षा होगी और बदल गरजकर कहेंगे
तुमने मुझे सदैव ग़लत ही समझा
तुम मुझे कभी नहीं समझे!!

पीड़ा कुछ नहीं है
सिवाय साँस और धड़कन के

मैंने हर आख़िरी बात इसलिए कही
कि पहली बात दोहरा सकूँ।

यह भी पढ़ें:

योगेश ध्यानी की कविता ‘उपस्थित’
मंजुला बिष्ट की कविता ‘उपस्थिति-अनुपस्थिति’

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अनुराग अनंत
अनुराग अनंत पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीएचडी कर रहे हैं। रहने वाले इलाहाबाद के हैं और हालिया ठिकाना अंबेडकर विश्ववद्यालय लखनऊ है।

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