‘Vichhoh’, a poem by Preeti Karn

प्रयाण पर भाद्रपद के मेघ
समेटते वसन वासन
नव सृजन संकल्प पूरित
गर्भिनी वसुंधरा!
नवमास के प्रवास की वेदना
अभिशप्त
संकोच के आवरण से
झाँकते विरही नयन
जिज्ञासु मन के प्रश्न अकिंचन्
टटोलते चिंतन
बसंत पतझड़ शीत ताप के
अनुताप जीना है एकाकी
सुख: की सुखद अनुभूति
दुःख के विशद पर्याय
ठिठुरती ठण्ड की सिकुड़न
गलाती हाड़ कृषकाय तन
याचना अनुरक्त
अनुदान पुनर्जीवन
प्रयाण करते भाद्रपद के मेघ
स्वीकारते वसुंधरा का
प्रेम आलिंगन!

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प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।

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