विदा का शब्दों से निकलकर
जब स्मृतियों में अस्तित्व हो जाता है
दूर होना किसी किताब का बेमानी शब्द-सा रह जाता है
किसी का तुम्हें सिर्फ़ कहीं छोड़ने आना
हमेशा ‘विदा’ नहीं होता
जैसे मेरा तुमसे विदा लेना
सिर्फ़ दृश्य में उपस्थित है, हृदय में अनुपस्थित
दृश्य में कितना कुछ अदृश्य होता है
जैसे हँसी के पीछे छुपी खड़ी रहती है
बिलखकर रोने की इच्छा
और रोने से झाँकती है
कभी मद्धिम न पड़ने वाली मुस्कान
गले लगकर अलग होने में जैसे छुपा होता है
हमेशा आलिंगनबद्ध रहने का रूमानी सपना
हाथ पकड़कर छोड़ने में जैसे छुपा होता है
कभी हाथ न छोड़ने का इरादा
बग़ैर कुछ बोले चलते हैं
कुछ सबसे दिलचस्प वार्तालाप
और औपचारिकता में हम
‘कुछ बोलोगे नहीं’ कहते हैं
विदा की चुप्पी
‘बहुत ज़्यादा कहने को है’ की गूँज है
जब किसी प्रिय को विदा देने
कुछ दूर साथ चलते हैं
हममें से हम कुछ कम लौटते हैं
जब हम दे देते हैं किसी को विदा
तो क्या वह सच में हमसे विदा ले लेता है?
अपने मन का एक टुकड़ा खो देना
और किसी का हममें एक टुकड़ा बढ़ जाना
क्या एक हैं?
विदा
दृश्य की नदी में लगातार आवाजाही करती
स्मृतियों का अदृश्य पुल है
और हम
हम अपने दृश्य में लगातार खो रहे
अपने अदृश्य टुकड़े।
अनुराग तिवारी की कविता 'शब्दों का मारा प्रेम'