मैं विदा ले चुका अतिथि (?) हूँ
अब मेरी तिथि अज्ञात नहीं, विस्मृत है।
मेरे असमय प्रस्थान की ध्वनि
अब भी करती है कोहरे के कान में सुराख़।
उपस्थितियों की संरचनाएँ जल गईं,
बच गई स्मृतियों की राख—
कि समय की आग में जलना
एक अनुत्क्रमणीय (?) रासायनिक परिवर्तन है।
अपनी देह की चादर में
स्मृतियों की यह भभूत लपेटे एक औघड़ ही तो हूँ।
घर को लौटते पाँव दुनिया को दूरी नहीं,
थकान के पैमाने से नापते हैं
और फिर यह दुनिया इतनी घनत्त्वहीन है
कि समा सकती है—
तुम्हारे पाँव की धूल बराबर जगह में।
किन्तु, कितना मुश्किल है
इस दुनिया में फैली
संवादहीनता की अँधेरी सुरंगों को ढहाना!
आज जबकि संवाद के माध्यम ही—
बन गए हैं संवाद की बाधा,
मैं देहभाषा की व्याकरण में गुँथे
एक अलक्षित दृश्य की तरह खुलना चाहता हूँ तुममें,
एक आदिम, किन्तु अनाघ्रात गंध की तरह घुलना चाहता हूँ,
पर्णरंध्रों से रिसती रोशनी के
झरते हुए स्पर्श-सा मिलना चाहता हूँ तुममें।
किन्तु विडम्बना देखो
कि बन्द आँखों में खिले स्वप्नों के फूल
छितरा जाते हैं आँख खुलने के साथ,
काश स्वप्नों के अन्दर से फूट पातीं
सामानान्तर दुनियाओं की शाखाएँ
सुना है कि सामानान्तर दुनिया में
असमय प्रस्थान बदल सकता है असमय आगमन में!
प्रांजल राय की कविता 'औसत से थोड़ा अधिक आदमी'