जब जब मैंने, धरती पर,
सनी धूल में,
शोकालीन लता को चाहा-
फिर से डालना बाँहों में वृक्ष की,
तभी
आँधी के झौंके से धूल भरी-
आँखें हो गयीं लाल।

थोड़ा सम्भलकर,
आँधी से छिन्नांग लता को
अपने हाथों से चाहा-
शाखा की सेज सुला दूँ,
तभी,
बरस पड़े मूसलाधार
प्रलय के मेघ।

भयंकर जंगल में (राजनीति के),
अनुशासन हीन हवाओं से,
बुझाए गए दीप को
मत सोचो अपनी सुरक्षा,
सुरक्षा की कथा-
पत्थरों पर खुद गयी है,
वह बन गयी दीवार-
प्रगति में (अन्ध प्रजा की)।

वह प्रकृति नहीं है,
और प्रकृति है तो
व्यवहार नहीं है।
राजनीति की कथा,
क्या कथा!