राजकमल चौधरी की कहानी ‘व्याकरण का तृतीय पुरुष’ | ‘Vyakaran Ka Tritiya Purush’, a story by Rajkamal Chaudhary
सुभाष जानता है। सुभाष जानना नहीं चाहता है मगर जानता है और कोई बुरा सपना देखने में सबसे बुरी बात यही है कि सपना जल्दी भूलता नहीं है। और एलिसा तो सपना नहीं है, सुभाष के जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह सच्चाई गुम हो गई है। गलियाँ हैं और गलियों के अंदर गलियाँ हैं और गलियों के अंदर गलियाँ हैं और गलियों के अंदर सुभाष के जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई गुम हो गई है।
एलिसा नहीं आएगी। एलिसा अब लौटकर वापस नहीं आएगी। आएगी भी, तो एलिसा नहीं आएगी, एक औरत आएगी। कोई भी औरत, अपरिचित, अनजानी, अजनबी औरत! जो लोगों को फ़ुटपाथों पर या बदबूदार कमरों में या फ़्लश और रमी के कार्डों की पीठ पर या फ़िल्मों के पर्दों पर, या कहीं और मिल जाती है। मिल जाती है और साथ चली आती है, जैसे एलिसा चली आयी थी। साथ रहती है और वापस चली जाती है, जैसे एलिसा वापस चली गई है।
एलिसा आएगी। किसी भी अजनबी औरत की तरह आएगी, साथ रहेगी। जी चाहने पर कॉफ़ी बनाएगी। जी चाहने पर दो गिलासों में बराबर-बराबर बियर ढालेगी। जी चाहने पर मसहरी के अंदर साथ सो भी जाएगी। रोशनी बुझाएगी। रोशनी जलाएगी। शरमाएगी, नहीं शरमाएगी। मुस्कराएगी, नहीं मुस्कराएगी। एलिसा। लिसा। नहीं, कोई भी अजनबी औरत। अपरिचित, अनजानी, अपने-आप में खोयी हुई औरत।
सुभाष जानता है। सुभाष जानता है और तेज़ क़दमों से पाम-व्यू मैन्शन की लाल कंकड़ों वाली सड़क को पार करता हुआ बड़े फ़ाटक के बाहर चला आता है। सामने बालीगंज लेक है, और रात हो चुकी है और लेक के जल के विस्तार पर किनारे के मकानों की रोशनी सफ़ेद और स्याह तस्वीरें आँक रही है। रोशनी की बनायी हुई तस्वीरें। अँधेरे की बनायी हुई तस्वीरें। रोशनी। अँधेरा। जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई… जीवन का सबसे बड़ा झूठ…
एलिसा फ़्री स्कूल स्ट्रीट के किसी एक बड़े मकान के किसी एक छोटे-से कमरे में रहती थी। एलिसा, उसकी बड़ी बहन बियट्रिस, उसका बड़ा भाई सैमुएल। सैमुएल कभी-कभी पुरानी मोटरों की दलाली करके रुपया कमाता था। ज़्यादातर रुपया कमाता नहीं, ख़र्च करता था, और अपनी छोटी बहन से कहता था-
“रुपया ख़र्च करने की चीज़ है लिसा, कमाने और जमा करने की नहीं।”
रुपया कमाती थी बियट्रिस। सुबह-शाम ट्यूशन करती थी। दिन में एक डिपार्टमेन्टल स्टोर में खिलौने और स्त्रियों के सौंदर्य-प्रसाधन बेचती थी। रात में कभी किसी होटल में और कभी किसी बार हाउस में और कभी किसी क्लब में बैठती थी। सैमुएल अपने दोस्तों से कहता था- “मेरी सिस्टर मल्टीपरपस स्कूल है। मेरी सिस्टर डिपार्टमेंटल स्टोर है। मेरी सिस्टर डान्स फ़्लोर है, पब्लिक पार्क है…”
एलिसा कुछ नहीं करती थी। इसलिए, एलिसा ने वाई. डब्ल्यू, सी. ए. के स्कूल से स्टेनोग्राफ़ी की सर्टिफ़िकेट हासिल कर ली। सर्टिफ़िकेट और हाथ करघे की सफ़ेद साड़ी, बनारसी सिल्क की ब्लाउज़ और कन्धों पर झूलती हुई बालों की लटें और शांतिनिकेतनी बैग। बियट्रिस ने कहा, “डलहौजी की किस फ़र्म के डायरेक्टर को साहस है कि इंटरव्यू में बुलाकर हमारी लिसा को नौकरी नहीं दे। नौकरी हमारी लिसा के पीछे-पीछे भागेगी!”
भाई ने पूछा, “शार्टहैंड में कितनी स्पीड है? और टाइप में?”
“अभी स्पीड पकड़ नहीं सकी हूँ!” एलिसा ने कहा और आधी शरमाती हुई, आधी मुस्कराती हुई डलहौजी की ट्राम के पहले दर्जे में दाख़िल हो गई।
कुछ ही मिनटों बाद इंडियाना पब्लिसिटी सर्विस के डायरेक्टर मिस्टर हाउसफ़ुल ने सुभाष को अपने चैम्बर में बुलाकर कहा, “पाँच-छह लड़कियाँ हैं। तुम इंटरव्यू ले लो। स्पीड, पर्सनलिटी और मैनर्स, इन्हीं तीन बातों का ध्यान रक्खोगे!”
“ओ. के. सर!” सुभाष ने कहा और अपने बड़े टेबुल पर आ गया।
टेबुल है, टेबुल के शीशे के नीचे अख़बारों के विज्ञापन-प्रतिनिधियों के विजिटिंग-कार्ड चमक रहे हैं। सफ़ेद-सफ़ेद कार्ड। ये कार्ड अख़बारों की आँखें हैं। सुभाष इन आँखों की रोशनी है। सुभाष सत्ताइस लाख रुपयों की दौड़ती पूँजी पर इंडियाना पब्लिसिटी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का पब्लिसिटी एक्सपर्ट है। सुभाष अपने बॉस का दायाँ बाजू है।
दाएँ बाजू ने इशारा करते हुए पाँच लड़कियों से एक साथ कहा- “प्लीज़ टेक योर सीट।”
एलिसा सबसे किनारे की कुर्सी पर बैठ गई। चुपचाप बैठी रही और अपने हैंडबैग पर बने कबूतरों को देखती रही। ये कबूतर उड़ तो नहीं जाएँगे?
सुभाष ने पूछा, “मिस सोनी, आपकी स्पीड क्या है? और एक्सपीरिएन्स?”
“शार्टहैंड एक सौ चालीस, टाइपिंग साठ। एक्सपीरिएन्स नहीं है। नौकरी देंगे, तब तो एक्सपीरिएन्स होगा!” मिस सोनी के अंग-अंग पर मुस्कुराहटें बरसने लगीं।
सुभाष ने पूछा, “मिसेज परेरा, आपकी स्पीड क्या है? और एक्सपीरिएन्स?”
“शार्टहैंड एक सौ, टाइपिंग चालीस, चार महीने एक प्राइवेट फ़र्म में स्टेनो थी। वह नौकरी छूट गई!” मिसेज परेरा को देखकर ऐसा नहीं लगता था कि कोई भी मालिक ऐसी स्टेनो को नौकरी से हटाना चाह सकता है।
सुभाष ने पूछा, “क्यों छूट गई? आपने अपने बॉस को कोआपरेट नहीं किया होगा!”
“बॉस को कोआपरेट करने का मतलब अगर यह है कि छह बजे शाम के बाद भी दफ़्तर में रुका जाए और तब बॉस की कार में बैठकर पार्क-स्ट्रीट के किसी रेस्तरां में जाया जाए, तो मैंने कोआपरेट नहीं किया! मिसेज बेकर ने कहना चाहा, मगर कह नहीं सकी। मिस नायक ने कहना चाहा, मगर कह नहीं सकी।” मिसेज परेरा ने कहा, “अब कोआपरेट करूँगी, ज़रूर करूँगी। नौकरी छूट जाता है तो क्या होता है, यह पहले मुझे मालूम नहीं था।”
जवाब सुनकर सुभाष हँसने लगा, यों ही हँसने लगा। लड़कियाँ शरमाने लगीं। सुभाष का हँसना रुक गया। लड़कियों का शरमाना रुक गया। फिर, दाएँ बाजू ने इशारा किया। फिर लड़कियाँ चली गईं। टाइपराइटर के ढक्कन की तरह लड़कियाँ धीरे उठीं और की-बोर्ड की तरह फ़र्श पर उनके पाँव गिरने और उठने लगे और वे चली गईं।
“आप क्यों नहीं गईं?” सुभाष ने सिगरेट जलाते हुए मूविंग-चेयर पर ज़रा-ज़रा घूमते हुए पूछा।
मैं क्यों नहीं गई? एलिसा ने अपने दिल से पूछा, फिर ओठों पर जीभ फेरकर, धीमे लहजे में बोल सकी, “मुझे तो आपने जाने को कहा नहीं। कुछ पूछा भी नहीं। सर्टिफ़िकेट भी नहीं देखे! मैं भी इंटरव्यू देने आयी हूँ। मुझे भी बुलाया गया है…”
सुभाष ने एलिसा के हाथों से लिफ़ाफ़ा खींच लिया। वाई. डब्ल्यू. सी. ए. कमर्शियल स्कूल की प्रिंसिपल ने लिखा है, मिस एलिसा कोहेन बहुत सुशील और सुसंस्कृत युवती है। एलिसा ने लोरेटो कान्वेंट से सीनियर कैंब्रिज किया है। एलिसा के गले में सफ़ेद पत्थरों की एक माला पड़ी है। एलिसा की उम्र कुल उन्नीस साल की है।
“आपकी उम्र क्या है?” सुभाष की कुर्सी एक बार पूरा चक्कर खा गई। सुभाष को लगा कि चक्कर खा गई। किसी लड़की से उसकी उम्र पूछकर सुभाष सहम-सा गया। बुरा तो नहीं मान जाएगी?
“उम्र? सर्टिफिकेट में उन्नीस है! वैसे बहन कहती है, मैं उससे चार साल छोटी हूँ। बहन की उम्र बीस-इक्कीस से ज़्यादा नहीं है। क्यों, उम्र का क्या करेंगे आप?” एलिसा समझ गई कि सुभाष भला आदमी नहीं है। सैमुएल कहता है, लड़की की उम्र और लड़के का वेतन पूछा नहीं जाता है। पूछने से भी सच उत्तर नहीं मिलता है। मगर एलिसा ने सच-सच कह दिया है। शायद सुभाष को विश्वास नहीं होता है क्योंकि सोलह-पंद्रह की कच्ची लड़की नहीं लगती है, पकी और ठोस और भरी-पूरी लड़की लगती है।
सुभाष मुस्कराया। सोलह-सतरह साल। आँखों के इर्द-गिर्द अनुभव के दाग़ नहीं, निगाहों में अजीब-सी उलझन, अजीब-सी लापरवाही, अजीब-सी उदासी। सुभाष मुस्कराया। टेलीफ़ोन पर किसी दैनिक पत्रिका की महिला-प्रतिनिधि को जवाब देता हुआ बोला, “फ़ोन पर मज़ा नहीं आता है, मिस सिन्हा! आाप कभी आइए। अरसे से दर्शन नहीं हुए हैं। ठीक है, शाम को कॉफ़ी हाउस में। ठीक है, थैंक्यू!”
सुभाष ख़ुश हो गया। चश्मा उतारकर रुमाल से गिलास साफ़ करने लगा। बेयरे से बोला, “मेरे लिए कॉफ़ी लाओगे। हाँ, आप… मिस… आप क्या लेंगी?”
“मैं जो भी लूँगी। वैसे मुझे कॉफ़ी से ज़्यादा कोकाकोला पसंद है। जो भी मंगाइए!” एलिसा ने जीभ से ओठ तराश लिया। कॉफ़ी में तीखापन होता है, मगर कोकाकोला का रंग नहीं होता, मिठास नहीं होती, रंग-बदरंग ज़ायका नहीं होता।
एलिसा ज़िन्दगी का रंग-बदरंग ज़ायका चखना चाहती है। सैमुएल और बियट्रिस की दुनिया से बाहर भी एक दुनिया है और एलिसा उसे देखना चाहती है! अक्सर औरत यही चाहती है। इसलिए कोकाकोला के बाद, एलिसा ने अपनी मोटी और भारी पलकें ऊपर उठायीं और पलकों पर आबनूस के लम्बे-चौड़े कुंदे की तरह दिखते हुए सुभाषचन्द्र दास को उठाया और बोली, “यह नौकरी नहीं मिलेगी तो मुसीबत में पड़ जाऊँगी। अकेली बहन घर का ख़र्चा सम्भाल नहीं पाती है। आप चाहें तो यह नौकरी मुझे दे सकते हैं। आइ ऐम सिन्सियर! आइ ऐम ओबिडिएंट! आई ऐम हार्ड-वर्किंग!”
“हम लोग चिट्ठी से आपको ख़बर करेंगे! आप अभी जा सकती हैं। मैं आपके लिए कोशिश करूँगा। आपको एक्सपीरिएन्स नहीं है, फिर भी…”, सुभाष ने कहा और व्यस्त होता हुआ स्टेनो को बुलाकर मीरा स्नो का विज्ञापन डिक्टेट करने लगा… मिस मालती सिर्फ़ मीरा स्नो व्यवहार करती हैं, क्यों वह एक चतुर महिला हैं। वे जानती हैं कि मीरा स्नो के पाँच फ़ायदे हैं! त्वचा को कमल के फूल की तरह कोमल और स्निग्ध बनाना, चेहरे का रंग अधिक पवित्र और आकर्षक बनाना सुंदरता…
“आप मुझे कोई फ़ाइनल जवाब दे दीजिए! येस या नो, कुछ भी कह दीजिए!”, एलिसा टेबुल पर थोड़ी झुक गई। कोमल और स्निग्ध त्वचा, पवित्र और आकर्षक रंग, सुंदरता, सुंदरता… सुभाष को अचानक लगा कि एलिसा को सामने बैठाकर वह हज़ारों स्नो और हज़ारों क्रीम और हज़ारों पाउडरों के विज्ञापन लिख सकता है। एलिसा जैसे क़ीमती साबुनों और क़ीमती लिपस्टिकों के विज्ञापनों में वर्णन किए जाने के लिए ही बनी है।
एलिसा के सौंदर्य में प्राकृतिकता और स्वाभाविकता नहीं है, कलात्मकता है। उसने मेकअप नहीं किया है, घण्टों शीशे के सामने बैठकर पाउडर की तहों पर क्रीम की पर्तें नहीं जमायी हैं। मगर स्वाभाविक नहीं है, कलात्मकता है। लगता है, एलिसा के शरीर का अंग-अंग किसी मशीन से तराशकर बनाया गया है। कहीं भी कोई बेतरतीबी नहीं, लापरवाही नहीं, ख़ामी नहीं। बेतरतीबी है तो एलिसा के बिखरे हुए बाब्ड केशों में। लापरवाही है तो एलिसा की भंगिमा में, बोलने के लहजे में, मुस्कराने में। और ख़ामी नहीं है, कहीं नहीं है। अगर नहीं है तो सिर्फ़ एक्सपीरिएन्स नहीं है।
सुभाष ने कहा, “कल सटर्डे है। ठीक तीन बजे मैं मेट्रो सिनेमा के सामने खड़ा रहूँगा।”
सटर्डे की शाम को पाँच या छह बजे सुभाष के फ़्लैट के नीचे टैक्सी रुकी। टैक्सी से उतरकर एलिसा और सुभाष सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। शनिवार की शाम थी और अगल-बग़ल के फ़्लैट के लोग मैटिनी शो में थे या चिड़ियाख़ाने के मैदान में लेटे जंगल की बातें सोच रहे थे या फ़ुटबाल मैच देख रहे थे या दफ़्तर में ओवरटाइम कर रहे थे। सीढ़ियाँ हैं, फिर दरवाज़ा है, फिर लम्बा करीडोर है फिर दरवाज़ा है।
सुभाष के बेयरे ने सलाम किया और दरवाज़े से बाहर निकलकर सीढ़ियाँ उतरने लगा। सुभाष ने कहा, “अब्दुल्ला, नीचे स्पेन्सर वाले से एक गोल्डन ईगन ले आओगे।”
एलिसा सीलिंग-फ़ैन के नीचे सोफ़े पर बैठकर चेहरे पर पसीना सुखाने लगी। फिर एक ही साँस में उसने दो बातें कहीं, “बहुत ख़ूबसूरत फ़्लैट है। बहुत गर्मी है!”
सामने दीवार पर एक तस्वीर थी और तस्वीर में टिटियन की सेंट मार्गरेट हाथ में क्रूस लिए एक पहाड़ी दर्रे के किनारे खड़ी थी।
“नहीं, यह ओरिजिनल नहीं है, कॉपी है। पिछले साल यूरोप गया था, लंदन के एक आर्टिस्ट ने यह तस्वीर मुझे प्रेजेंट की थी। ओरिजिनल तो मैड्रिड की आर्ट-गैलरी में पड़ी है। जानती हो, इस कॉपी का दाम कितना बताते हैं? तुम्हें विश्वास नहीं होगा। पाँच हज़ार तो लेडी शांति मुखर्जी अभी देने को तैयार हैं। मैं आठ हज़ार…” कहते-कहते सुभाष रुक गया। समझ गया और रुक गया। रुक गया और सोचने लगा कि पसीने से डबडबाता हुआ चेहरा कितना ख़ूबसूरत लगता है। सोचकर बोला, “इंडियाना वाली नौकरी तुम्हारे लिए बहुत ज़रूरी है?”
“हाँ!”, एलिसा ने कहा और सोचने लगी कि बियट्रिस ने कहा था कि अपने फ़्लैट में ले जाएगा तो नौकरी ज़रूर देगा। बियट्रिस ने कहा था कि नौकरी पाए बिना फ़्लैट में ज़्यादा देर नहीं रुकना चाहिए। सैमुएल ने कहा था कि नौकरी से पहले फ़्लैट में रुको या नौकरी के बाद में रुको, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।
सुभाष ने दो गिलास में पहले बराबर-बराबर बियर डाली, फिर आलमीरे के ड्राअर से व्हिस्की की बोतल निकालकर उसमें व्हिस्की मिलाई। गिलासों का रंग बदल गया। सुभाष की आँखों का रंग बदल गया। एलिसा की आँखों का रंग बदल गया। कमरे की हर चीज़ का रंग बदल गया।
“आप मुझे नौकरी देंगे तो?” एलिसा ने रुमाल से ओठ पोंछते हुए सवाल किया।
“तुम चाहो तो कल ज्वाइन कर सकती हो!” सुभाष ने उत्तर दिया और एलिसा की बग़ल में सोफ़े पर बैठ गया।
सीलिंग फ़ैन की तेज़ हवा भी एलिसा के चेहरे पर पसीने की बूँदें रोक नहीं सकी। हवा धीमी हो गई। हवा गर्म हो गई। हवा में विचित्र-सी उमस और गंध भर आयी। सुभाष ने अपनी बाँह पहले सोफ़े की पीठ पर फिर एलिसा की पीठ पर डाल दी। एलिसा चौंकी नहीं। एलिसा घबरायी नहीं। एलिसा झिझकी नहीं।
सुभाष मुस्कराया। उसकी उँगलियाँ सितार के तारों की तरह थरथराने लगीं। संगीत बजने लगा। संगीत रुक गया। संगीत तेज़ उभरने लगा। संगीत रुक गया। उसने एलिसा को चूमने की कोशिश की, मगर उसने अपना चेहरा घूमा लिया और टिटियन की सेंट मार्गरेट को देखने लगी। सेंट मार्गरेट के हाथ में क्रूस है। सुभाष के हाथों में नौकरी है। बियट्रिस के हाथों में दोनों वक़्त का खाना है। सैमुएल के हाथों में ताक़त है, जिससे वह अपने कमरे में आने वाले लड़कों को बाहर ही रोक देता है ताकि थकी हुई बियट्रिस सो सके और सोयी हुई एलिसा की नींद नहीं टूट जाए। और, एलिसा के हाथों में कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं है, टूटा हुआ एक क्रूस भी नहीं।
“आप इतनी जल्दी क्यों मचा रहे हैं? अभी तो हम एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं! यू आर नाट माइ फ्रेंड, मिस्टर सुभाष!” एलिसा ने कहा और सामने की कुर्सी पर चली गई। सुभाष ने कुछ फ़िल्मी बातें कहीं और एक बार फिर कोशिश की।
एलिसा ने कहा, “मैं शोर मचाना जानती हूँ, आप बेवक़ूफ़ी नहीं कीजिए!”
“तुम नौकरी नहीं चाहती हो?”
“चाहती हूँ!”
“तब ऐसा क्यों करती हो?”
“मुझे एक्सपीरिएन्स नहीं है, मैं डरती हूँ।”
“डरोगी तो नौकरी नहीं मिलेगी!”
“नौकरी मिलेगी! आप मुझे नौकरी ज़रूर देंगे।”
“क्यों दूँगा?”
“इसलिए कि आप मर्द हैं। आप नहीं चाहेंगे कि आप मेरे जैसी छोटी लड़की से हार जाएँ। मैं आपसे बीस-पच्चीस साल छोटी हूँ… और, आप पागल हो रहे हैं!” एलिसा ने कहा, और हँसने लगी, और टेबुल पर पड़े पैकेट से एक सिगरेट निकालकर पीने लगी।
यह एलिसा का पहला सिगरेट था। गोल्डफ़्लेक सिगरेट। एलिसा को नशा चढ़ आया, बियर-व्हिस्की का नहीं, गोल्डफ़्लेक का नशा। सुभाष की तरफ धुआँ फेंकते हुए उसने पूछा- “आपकी शादी नहीं हुई है? आप शादी क्यों नहीं कर लेते? नौकरी माँगने वाली लड़कियों को फ़्लैट में बुलाने से बेहतर है कि शादी कर ली जाए। ज़्यादातर लड़कियाँ बिना शादी किए माँ बनने से रिस्क नहीं लेना चाहती है। और आप इसी तरह हारते रहेंगे, मिस्टर सुभाष!”
“तुम मुझसे शादी करोगी?” अचानक सुभाष ने पूछा और अचानक एलिसा का चेहरा अपने पंजों में दबाकर उसे चूम लिया। एलिसा के ओठ मोमबत्ती की तरह जलने लगे। मोम पिघलने लगा। उसने कहा, “यू आर मैड!”
सुभाष पागल नहीं था, उसने एलिसा को चूमना अपना पेशा बना लिया। एलिसा पागल नहीं थी, उसने सुभाष के फ़्लैट में रहना अपनी नौकरी बना ली। सुभाष और एलिसा के फ़्लैट में बहार आ गई। एलिसा और ताज़ा गुलाब के गुलदस्ते और रेडियो पर राक-ए-चिका और राक-ए-बेबी के गीत और मुस्कराहटें और कहकहे और कोट के कालर पर लिपिस्टिक के दाग़।
सुभाष से शादी करने के महीने-भर के बाद, एलिसा अपनी बड़ी बहन को अपने फ़्लैट में ले आयी। फिर धीरे-धीरे सैमुएल भी आ गया। फिर सैमुएल अपने अल्सेशियन को भी ले आया। फ़्लैट में रसोई-घर और बाथरूम के अलावा दो कमरे थे। सुभाष का बेयरा बरामदे में सोने लगा। ड्राइंगरूम को सैमुएल ने अपने और अपने अल्सेशियन के क़ब्ज़े में कर लिया। सोने के कमरे में दो बेड लगाकर एलिसा और बियट्रिस सोने लगीं। एलिसा के बेड में सुभाष सोता था और बीच में बड़ा-सा टेबुल था, फिर बियट्रिस का बेड। उस दिन सैमुएल एक क्रिश्चियन लड़की के साथ घर वापस आया। सुभाष ड्राइंगरूम में बैठा इंडियाना का बजट पढ़ रहा था। सैमुएल ने कहा, “हल्लो सुभाष, इनसे मिलिए, ये हैं मिस शान्तिकुमारी जोसेफ़! माई न्यू गर्ल!”
सुभाष ने कोई उत्तर नहीं दिया। ज़ाहिर था, मिस जोसेफ़ और मिस्टर सैमुएल, दोनों पिए थे, नशे में थे और सुभाष बजट पढ़ रहा था। सैमुएल ने रेडियो ऑन कर दिया। एक गाना बज रहा था-
टेन डालर ए बोटल ऐंड फाइव डालर ए फिश थ्री डालर ए केबिन ऐंड वन डालर ए किश माई बेबी ओ, माई बेबी, फाइव डालर ए फिश…
शान्तिकुमारी ने सैमुएल के गले में हाथ डाला और सैमुएल ने शान्तिकुमारी की कमर में हाथ डाला और दोनों शांतिपूर्वक सोफ़े पर बैठ गए, और शांतिपूर्वक मछलियों का और चुम्बनों का और बोतलों का और होटलों के बंद केबिनों का गाना सुनने लगे। सुभाष ने बजट का दस्तावेज़ मोड़कर जेब में रख लिया और जूते पहनकर फ़्लैट से नीचे उतर गया। सैमुएल हँसने लगा, और बोला, “ब्लैक पिग!”
काला सूअर! सफ़ेद सूअर! काला। सफ़ेद। रंगों के भेद का क्या अर्थ है? मछलियाँ पाँच डॉलर में क्यों बिकती हैं? काला सूअर। ब्लैक पिग। तभी एलिसा सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर आयी और सुभाष जहाँ बैठा था, वहीं बैठकर शान्तिकुमारी के लिए बियर में व्हिस्की मिलाने लगी। एलिसा के कुछ देर बाद आयी बियट्रिस। फिर शान्तिकुमारी और सैमुएल बरामदे में चले गए। बरामदा, यानी बालकनी।
“सुभाष कहाँ गया है?” बियट्रिस ने पूछा।
इन दिनों बियट्रिस ने ट्यूशन करना छोड़ दिया है। सिर्फ़ डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करती है और सिर्फ़ दो-तीन लड़कों के साथ होटलों में बैठती है। लड़के, यानी डिपार्टमेंटल स्टोर का मैनेजर सलमान खान और इंडियन आर्टसेंटर का शिक्षक भवतोष गांगुली और प्रिंस होटल का म्यूजिक-डायरेक्टर जानाथन शा। बियट्रिस का स्वास्थ्य बेहतर हो गया है। आँखों में जीवन के चिराग़ जल उठे हैं। चेहरे पर उम्मीदों की किरणें तैरने लगी हैं।
“पता नहीं! मेरे आने से पहले ही चला गया है। शायद सैमुएल ने कोई मज़ाक किया होगा। नाराज़ होकर गया है। नहीं तो, नहीं जाता। मुझे साथ लेकर ही जाता!” एलिसा ने कहा और लाइफ़-मैगजीन के पन्ने उलटने लगी।
अब्दुल्ला का काम बढ़ गया है। रोज पाँच-छह लोगों का खाना पकाना पड़ता है। किचन में या बरामदे में सोना पड़ता है।
शान्तिकुमारी हँसती हुई, खिलखिलाती हुई भागी आयी, सोफ़े में धँसती हुई बोली, “नीचे लोग आ-जा रहे हैं और सैमुएल बदतमीज़ी करता है! ही वांट्स टु मेक लव इन पब्लिक…”
एलिसा शरमाने लगी। बियट्रिस मुस्कराने लगी। सुभाष लौटकर आया और अब्दुल्ला को पुकाने लगा। निश्चय ही शराब पीकर लौटा था ताकि वह भी सैमुएल की तरह बदतमीज़ी कर सके, ताकि वह भूल सके कि वह अपने ही फ़्लैट में अजनबी-जैसा है। ताकि वह याद कर सके कि एलिसा अपनी बीवी है।
अब्दुल्ला नहीं आया। एलिसा ने पूछा, “क्यों चीख़ रहे हो? क्या चाहिए?”
“कुछ नहीं चाहिए। मैं सोना चाहता हूँ। जोसेफ़ यहीं रहेगी क्या? रात ज़्यादा हो रही है। आइ वांट टू स्लीप। आइ वांट टू…” सुभाष रुक गया।
शान्तिकुमारी बालकनी में चली गई। बियट्रिस बग़ल के कमरे में चली गई। एलिसा बहुत थकी हुई थी, दिन-भर दफ़्तर में टाइपराइटर चलाना पड़ा था, फिर भी वह सुभाष के बग़ल में बैठ गई, बोली, “तुम कितने अच्छे हो! हाउ स्वीट!”
सुभाष ने उसे अपनी बाँहों में समेट लिया, बोला, “आइ लव यू!”
बालकनी में खड़े सैमुएल ने सुभाष की बात सुन ली और नकल उतारते हुए शान्तिकुमारी से कहा, आइ लव यू! आइ लव यू!
सुभाष को ग़ुस्सा नहीं आया, ऐसी बात नहीं है, मगर उसने कुछ नहीं कहा। चुपचाप उठा, और मसहरी के अंदर चला गया। दस मिनट में उसे नींद आ गई। नींद से बेहतर चीज़ दुनिया में कुछ नहीं है।
अय्यर ने कहा- “कल रात तुम्हारी वाइफ़ और सिस्टर-इन-ला को ग्रीनउड में देखा। मैंने सोचा, तुम भी होगे।”
“कल रात? कितने बजे?” सुभाष ने पूछना नहीं चाहा मगर सवाल ओठों से बाहर आ ही गया।
“क्यों? तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम्हारी वाइफ़ कितनी रात को किस होटल में जाती है? तुम्हारी शादी हुए तो चार महीने भी नहीं बीते हैं!” – अय्यर ने उत्तर दिया और अपनी टेबुल पर चला गया।
सुभाष अपनी टेबुल पर बैठा टाइम्स ऑफ़ इंडिया में जीवन-बीमे का विज्ञापन देखता रहा… अपना घर, अपनी बीवी, अपना बच्चा, इनके लिए जीवन-बीमा कराइए! …अपना घर, अपनी बीवी, अपना बच्चा…
सुभाष को पता नहीं है कि कल रात एलिसा ग्रीनउड क्यों गई थी? वह स्वयं नौ बजे सो गया था। डेढ़ बजे एलिसा अपने कमरे से बाहर आयी, सुभाष के पास आकर बोली – “मेरी तबीयत ठीक नहीं। तुम अकेले लंच ले लो।”
एलिसा अपने कमरे में चली गई। सुभाष लंच के लिए नीचे कैफ़ेटेरिया में नहीं गया। अपने मूविंग-चेयर पर बैठा रहा, जीवन-बीमे के विज्ञापन में एक घर, बीवी, एक बच्चे की तस्वीर देखता रहा।
एक दफ़्तर में काम करने का फ़ायदा यही है। एलिसा और सुभाष, साथ-साथ दफ़्तर आते हैं, साथ लंच लेते हैं, साथ वापस जाते हैं। मगर पाँच बजे एलिसा ने अपने कमरे से फ़ोन पर कहा, “मुझे कुछ अर्जेंट चिट्ठियाँ टाइप करनी हैं। देर हो जाएगी। तुम घर चले जाओ। वहाँ बियट्रिस अकेली होगी। सैमुएल आसनसोल गया है।”
सुभाष को मालूम है, बियट्रिस घर पर अकेली है। सुभाष ने नीचे आकर टैक्सी की और अपने फ़्लैट में चला गया। बियट्रिस अकेली थी और मेकअप कर रही थी। बोली, “एलिसा कहाँ है?”
“देर से आएगी। चलो, हम लोग पार्कस्ट्रीट से घूम आएँ, चलोगी?” – सुभाष ने पूछा और बाथरूम चला गया। वापस आकर कपड़े बदले। सफ़ेद पैंट और प्रिंस कोट में सुभाष इस उम्र में भी किसी राजकुमार की तरह लगता है। स्मार्ट और एक्टिव। ख़ूबसूरत नहीं, मगर आकर्षक।
“चलो!” – बियट्रिस ने कहा और सुभाष के पास आकर खड़ी हो गई।
मुस्कराती हुई उसकी आँखों में देखने लगी। सुभाष कितना लम्बा है! उसका माथा कितना चौड़ा है! उसकी बाँहें कितनी भरी-पूरी हैं! आप-ही-आप बंध जाने को जी चाहता है। उम्र चालीस-पैंतालीस से ज़्यादा नहीं होगी। सात सौ रुपए तनख़्वाह पाता है। अपनी कार नहीं है, मगर स्कूटर है। प्यानो नहीं है, मगर रेडियोग्राम है। बेयरा खाना बनाना जानता है। दफ़्तर में इज़्ज़त है। बियट्रिस ने सोचा और सुभाष के पास आकर खड़ी हो गई। उसने कहा, “चलो, कहीं भी ले चलो!” – मगर उसकी आँखों ने और उसके चेहरे ने और उसके चेहरे ने और उसके समूचे शरीर ने कहा कि कहीं भी जाने की क्या ज़रूरत है! सैमुएल आसनसोल गया है। एलिसा दस बजे रात से पहले क्या आएगी। कहीं भी जाने की क्या ज़रूरत है! बाहर अँधेरा है, बाहर पानी बरस रहा है, बाहर उदासी है, बाहर जान-पहचान के लोग हैं…
बियट्रिस ने अपने-आपको बेचा ही था, बदनाम होटलों के कमरों की तरह किराए पर ही उठाया था, अपनी ख़ुशी के लिए अपने को अर्पित नहीं किया था। बियट्रिस ख़रीदी गई थी, उसके जिस्म का गोश्त नोचा गया था, उसके शरीर के कोमल और एकांत अंगों को तराजू-बटखरों पर तौला गया था, उसकी क़ीमत लगायी गई थी! वह कभी किसी क्षण भी किसी के प्रति स्वेच्छा से समर्पित नहीं हुई थी। सैमुएल कहता है कि कोई भी लड़की समर्पित नहीं होती है, हर लड़की अपने-आपको बेचती ही है, चाहे वह बीवी ही क्यों न हो! मगर बियट्रिस को लगा, अभी इसी क्षण लगा कि हर औरत कभी-न-कभी समर्पित होना चाहती है!
एलिसा नहीं है। सैमुएल नहीं है। अब्दुल्ला कहीं भी भेज दिया जा सकता है। और बियट्रिस समर्पित होना चाहती है। सुभाष कितना ख़ूबसूरत लगता है, ड्राइंगरूम की दूधिया ट्यूब-लाइट की रोशनी में कितना ख़ूबसूरत लगता है! बियट्रिस सोचती रहती है और समय बीतता जाता है और कमरों की हवा गर्म होती जाती है। बाहर पानी और तेज़ी से बरसने लगता है।
“बाहर पानी बरस रहा है, कैसे जाएँगे?” – सुभाष ने पूछा और चुपचाप सोफ़े में धँस गया। बियट्रिस कमरे के बीच में एक सरल रेखा की तरह, एक सवाल की तरह, एक समस्या की तरह खड़ी रही, देर तक खड़ी रह गई और तय है कि हर सरल रेखा कभी-न-कभी किसी-न-किसी वक़्त कोई दूसरा सवाल बन जाती है! हर सवाल किसी दूसरे सवाल में घुल-मिल जाता है, हर समस्या एक नई समस्या बनकर सामने आती है!
रात के ग्यारह बजे बियट्रिस और सुभाष बालकनी में खड़े थे, तो टैक्सी रुकी। एलिसा उतरी और फ़ुटपाथ पार करके फ़्लैट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। टैक्सी मुड़ी तो सुभाष ने देखा, इंडियाना पब्लिसिटी सर्विस का असिस्टेंट डायरेक्टर निखिल गोस्वामी अपने बुझे हुए सिगार में माचिस लगा रहा है।
बियट्रिस मुस्करायी। बियट्रिस की मुस्कराहटों ने कहा कि अपने से बीस-बाइस साल छोटी लड़की का शौहर होना आसान काम नहीं है। बियट्रिस मुस्करायी और किसी दूसरे फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाती हुई एलिसा को अपने फ़्लैट में लाने चली गई।
“सुभाष डियर, हम फ़्रीमेन्स बार में गया था। हम गया था और गोस्वामी गया था। फ़्रीमेन्स बहुत अच्छी जगह है, सुभाष डियर!” – एलिसा ने कहा और कमरे में यहाँ से वहाँ चक्कर काटने लगी। गले का स्कार्फ़ खोलकर फेंक दिया। सैंडिल, मोजे, हेयर-पिन, रिबन, कानों के टाप्स, रिस्ट वाच, ब्लाऊज़! सुभाष कुछ नहीं बोला। बियट्रिस एलिसा की चीज़ें उठाकर वार्डरो में रखने लगी। सुभाष कुछ नहीं बोला। एक शब्द भी नहीं।
पाम-व्यू मैन्शन में इंडिया पब्लिसिटी सर्विस के डायरेक्टर मिस्टर हाउसफ़ुल का फ़्लैट है। सुभाष जानता है और तेज़ क़दमों से पाम-व्यू मैन्शन की लाल कंकड़ों वाली सड़क को पार करता हुआ बड़े फ़ाटक के बाहर चला आता है। सामने बालीगंज लेक है और रात हो चुकी है, और लेक के जल के विस्तार पर किनारे के मकानों की रोशनी सफ़ेद और स्याह तस्वीरें बना रही है।
सड़क पर टैक्सी खड़ी है और टैक्सी में बियट्रिस बैठी है। बियट्रिस पूछती है, “एलिसा कितनी देर तक यहाँ रहेगी?”
“पता नहीं, मुझे पता नहीं!” – सुभाष उत्तर देता है और बियट्रिस की बग़ल में बैठ जाता है। बियट्रिस कुछ और सवाल पूछे, इसीलिए सुभाष कहता है, “चलो, डाइमंड हार्बन की तरफ़ चलें। शहर की हवा में मेरा दम घुट जाएगा, मैं मर जाऊँगा।”
“नहीं, अपने फ़्लैट में चलेंगे। ड्राइवर पार्क-सर्कस ले चलो।” – बियट्रिस कहती है और सुभाष के इर्द-गिर्द अपनी बाँहें डाल देती है।
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