पढ़िए तसनीफ़ और शिवा की मिसॉजिनि (Misogyny (शाब्दिक अर्थ: स्त्री द्वेष)) पर एक विस्तृत बातचीत। तसनीफ़ उर्दू शायरी करते रहे हैं, उन्होंने एक नॉविल भी लिखा है। कहानियाँ भी लिखते रहे हैं और हिंदी, उर्दू में उनके कई आर्टिकल अदबी दुनिया, हम सब, लालटेन, पोषम पा और सदानीरा के माध्यम से उर्दू-हिंदी पढ़ने वालों तक पहुँचते रहे हैं। शिवा ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ यानी टिस्स हैदराबाद से डेवलपमेंट स्टडीज़ में एम ए किया है। और हाल-फ़िलहाल वो अपनी पी एच डी की तैयारी कर रही हैं।

तसनीफ़: हमारा समाज बहुत-सी चीज़ों और बातों को लेकर अभी तक कन्फ्यूज़्ड है। अगर हम सरल शब्दों में समझना चाहें कि मिसॉजिनि क्या होती है और क्या हमारी आम ज़िन्दगी से, हमारे घर में मिसॉजिनि को देखा जा सकता है, तो उसकी मिसालें क्या होंगीं?

शिवा: बहुत साधारण शब्दों में मिसॉजिनि का अर्थ है औरतों के प्रति घृणा की भावना। औरत होने के कारण औरत के प्रति होने वाला किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार अगर उचित दिखायी दे रहा है, तो यह मिसॉजिनि के तहत ही है। ऐतिहासिक रूप से लगभग हर समाज में औरत को आदमी से कमतर समझने की सोच ने इस घृणा को जन्म दिया है। इसका सीधा रूप तो हम इस बात में देख सकते हैं कि औरतों के प्रति हिंसा हमारे समाज में एकदम आम बात है। हम इस हिंसा के इतने आदि हैं कि जब तक किसी नए, अकल्पनीय अवतार में हिंसा की ख़बर हमारे सामने ना आए, हम विचलित होना भी भूल चुके हैं। तो अगर मिसॉजिनि के प्रकट रूपों की बात करें, तो इसका सीधा उदाहरण है औरतों के प्रति घर और बाहर होने वाली शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा। चूँकि यह हिंसा अख़बार के हर पन्ने पर दिखायी दे जाती है, मैं इसे इलैबोरेट नहीं करूँगी।

दूसरा उदाहरण, सोशल मीडिया के माध्यम पर औरतों के प्रति जिस तरह की भाषा का प्रयोग दिखायी देता है, वह मिसॉजिनि का ही रूप है। कुंठा चाहे किसी आदमी के प्रति हो या औरत के प्रति, वो बहन, माँ, पत्नी इत्यादि किसी औरत के लिए हिंसा की कामना के रूप में ही बाहर आती है। और इस वर्बल (मौखिक) हिंसा का शिकार अक्सर वे औरतें ज़्यादा होती हैं जो किसी पावर वाले पद पर आसीन हैं या मुखर होकर अपनी बात कहती हैं। ऐसी किसी औरत की ट्रोलिंग में भी आपको उसके काम की बुराई कम, और उसके शरीर पर, उसकी क्षमता पर और उसके खुलेपन पर ज़्यादा कमेंट दिखायी देंगे। जिस रेप कल्चर की हम आजकल बात करते हैं, उसका सीधा सम्बन्ध इस बात से है कि औरत पर मर्द का entitlement (अधिकार) बचपन से उसे सिखाया जाता है।

यहाँ से मैं मुड़ती हूँ मिसॉजिनि के उन रूपों की ओर जो हमें बहुत सहज जान पड़ते हैं मगर अपने अंदर एक भारी घृणा को सहेजे हैं। जैसे कि—तीसरे उदाहरण के रूप में—किसी को कहना कि जनानी मत बनो। इस एक कथन में दो बातें दिखायी देती हैं— एक तो यह कि जनानी होने से बुरा आपको कुछ नज़र नहीं आता, और दूसरा यह कि कुछ भाव, अभिव्यक्तियाँ, चलन स्त्रियों के लिए निर्धारित हैं— जैसे कि गप्पें मारना, जलन होना, कम खाना, धीरे बोलना, धीरे हँसना, घुमक्कड़ी न करना और बहुत कुछ। यह गुण आदमियों में हों तो वह जनानी है, और यह गुण औरत में न हों तो वह एक ख़राब औरत मानी जाती है। पति-पत्नी पर बने वे चुटकुले जिनपर हम-आप रोज़ हँसते हैं, उनमें भी मिसॉजिनि ही दिखायी देती है। उदाहरण के तौर पर, पत्नी का पति से काम कराना और उसे मारना एक बेहद आम चुटकुला है। यहाँ मज़े कि बात यह है कि ये दोनों ही बातें—आदमी का घर में काम करना और औरत से मार खाना—केवल चुटकुलों में ही दिखायी देता है। सोचकर देखिए कि आपके आसपास ऐसे कितने परिवार हैं जहाँ आपने ऐसा देखा है? यह इस सोच को दिखाता है कि आदमी का काम घर की देखभाल नहीं है, इस देखभाल पर तो उसका अधिकार है, जो उसे औरत से प्राप्त होना चाहिए। और औरत के प्रति घर में हिंसा तो आम है, मगर आदमी के प्रति हिंसा मज़ाक़ का विषय है।

इन सभी उदाहरणों में कॉमन बात यह है कि हमने ‘गुड’ और ‘बैड’ वुमन के स्वभाव को रेखांकित करती श्रेणियाँ बना रखी हैं जिनके आधार पर हम तय करते हैं कि कौन-सी औरत समाज में स्वीकृत है। ये श्रेणियाँ दो विपरीत औरतों को रेखांकित करती दिखायी देती हैं। जैसे माँ के विपरीत एक सेक्स वर्कर, शादीशुदा महिला के विपरीत बिन ब्याही माँ, माँ के विपरीत पत्नी इत्यादि। एक औरत को अच्छा बताकर दूसरी की तरफ़ घृणा मिसॉजिनि को शालीनता से प्रस्तुत करने का तरीक़ा भर है। तो मिसॉजिनि के बीज तभी हमारे दिमाग़ में बो दिए जाते हैं जब हमें घर में बताया जाता है कि किस तरह की औरत स्वीकृत नहीं है। और यह अक्सर वे औरतें होती हैं जो आदमी के अधीन नहीं होतीं या आदमी के बिना भी ख़ुशहाल जीवन जीती हैं।

तसनीफ़: अगर मिसॉजिनि इतनी व्यापक टर्म है, तो फिर फ़ेमिनिज़्म को भी इतना ही व्यापक होना पड़ेगा। इस पर तुम्हारा क्या विचार है?

शिवा: बिलकुल। जो स्त्रीवादी आंदोलन है, जिसे हम फ़ेमिनिज़्म कहते हैं, वह तब तक अधूरा है जब तक इसमें हर वर्ग की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व न हो। दलित-बहुजन-आदिवासी स्त्री, माइनॉरिटी से आती औरतें, ट्रांसवुमन, सेक्स वर्कर आदि अगर कोई भी इससे पीछे छूट गया, तो इस मूवमेंट का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यहाँ पर यह बात भी याद रखनी होगी कि किसी भी इंसान के जीवन का संचालन एक से अधिक इंस्टीटूशन (संस्थाओं) से प्रभावित होता है। मसलन एक औरत, औरत होने के साथ एक दलित भी हो सकती है, समलैंगिक भी हो सकती है और आर्थिक रूप से कमज़ोर भी। उसके जीवन पर इन सभी पहचानों का प्रभाव होगा, और फ़ेमिनिज़्म को इन सभी पहचानों को ध्यान में रखना होगा। एक दलित औरत सवर्ण औरत से प्रायः ज़्यादा शोषित होती है, और अगर वह साथ ही समलैंगिक है या शारीरिक रूप से अक्षम है, तो उसका शोषण दूसरे स्तरों पर भी होगा। अगर कोई फ़ेमिनिस्ट होना क्लेम करे, और साथ ही जातिगत आरक्षण को ख़राब बताए तो उसके फ़ेमिनिज़्म में दलित स्त्री मौजूद ही नहीं है। अगर एक औरत अपने वर्कप्लेस में आदमी के बराबर सैलरी पाने के लिए संघर्षरत है, मगर अपने घर में काम कर रही हेल्पर की तनख़्वाह बढ़ाने में झिझकती है, तो वह फ़ेमिनिस्ट नहीं है। फ़ेमिनिज़्म अगर इंटरसेक्शनल नहीं है— जेंडर, कास्ट, क्लास आदि को साथ-साथ नहीं देखता, हर तबगे की औरतों की बात नहीं करता, तो वह फ़ेमिनिज़्म नहीं है।

तसनीफ़: क्या लड़कियों के साथ जो सुलूक हमारे समाज में होता है, उसके लिए वाक़ई कहीं लड़कियाँ और औरतें भी ज़िम्मेदार हैं? कंट्रोल्ड होने और एक अच्छी बहन, बेटी और पत्नी होने में क्या अंतर है? या ये एक ही बात है?

शिवा: इस सवाल के दो भाग हैं— पहले के लिए मैं यह कहना चाहूँगी कि यह बेशक सच है कि पितृसत्ता को आगे बढ़ाने में औरतों की भी भागेदारी है। दहेज के लिए प्रताड़ना, भ्रूण हत्या, हॉनर/कास्ट किलिंग, लड़कियों पर पाबन्दियाँ लगाना आदि ऐसी सच्चाइयाँ हैं जिन्हें अक्सर औरतें भी सच करती दिखती हैं। मगर इसका सीधा निष्कर्ष यह नहीं है कि औरत की इस दशा के लिए वह ख़ुद ज़िम्मेदार है। ऐसा कहना तो विक्टिम ब्लेमिंग जैसी बात हो जाएगी। यह बहुत जटिल मसला है। मगर इसके कुछ पहलुओं की बात करें तो पहले तो औरतों की कंडीशनिंग शुरू से इसी तरह की जाती है कि उन्हें यही ‘सही’ लगे। औरत परिवार की इज़्ज़त है और यह इज़्ज़त औरत के यौनिक आचरण से सम्बद्ध है, यह बात उसे घुट्टी की तरह पिला दी जाती है। और वह भी इस हद तक कि इस ढाँचे में फिट नहीं होती अपनी ख़ुद की बेटी की जान लेने से भी वह न हिचकिचाए। यह मसला बहुत दृढ़ता से जाति से जुड़ा हुआ है। इसीलिए पित्तृसत्ता को ब्राह्मणवादी पित्तृसत्ता या Brahmanical Patriarchy कहते आपने लोगों को सुना होगा। इसका कारण यह है कि औरत को कंट्रोल में रखने की मानसिकता मुख्य दो वजहों से आती है— एक तो यह कि पित्रृसत्तात्मक समाज में प्रॉपर्टी का उत्तराधिकार इस पर डिपेंड करता है कि औरत किसके बच्चे, कितने बच्चे और किस लिंग के बच्चे को जन्म देती है। इसके लिए औरत के प्रजनन सम्बन्धी फैसलों को कंट्रोल करना ज़रूरी है। औरत की सेक्सुअल (लैंगिक) गतिविधियों को कंट्रोल करने का दूसरा बड़ा कारण है कास्ट को बनाए रखना। जाति के बाहर के किसी व्यक्ति के साथ औरत का सम्बन्ध न बन पाए इसलिए औरत की मोबिलिटी (कहीं भी आना जाना) और सेक्सुअलिटी (यौनिक आज़ादी) को कंट्रोल करना एक ब्राह्मणवादी समाज की ज़रूरत है। यही कारण हैं कि एक अच्छे चरित्र की स्त्री उसे माना गया है जो यौनिक रूप से (sexually) एक्टिव न हो, या एक्टिव हो तो घर के पुरुषों की सहमति से। ब्राह्मणवादी पित्तृसत्ता का यह पूरा ढाँचा औरत और आदमी, चाहे वे किसी भी जाति के हों, उनके मन-मस्तिष्क में बैठा दिया गया है। इसके द्वारा निकली नैतिकता को बनाए रखने के लिए औरतें भी पीछे नहीं रहतीं।

कंडीशनिंग के अलावा दूसरा कारण यह है कि औरत की सामाजिक व आर्थिक समृद्धि अक्सर आदमी से जुड़ी होती है। ऐसे में आदमी के ख़िलाफ़ जाना आसान नहीं। सास बहू का उदाहरण ले लीजिए। सास बहू को या बहू सास को परेशान करे, उसका बड़ा कारण यह है कि घर में दोनों की आर्थिक स्थिति व स्टेटस मर्द पर निर्भर करता है। मर्द जिसके क़रीब, उसकी स्थिति दूसरी स्त्री से थोड़ी बेहतर।

पित्तृसत्ता में औरतों की भागीदारी का तीसरा कारण है उनके प्रति होने वाली हिंसा। औरत सही-ग़लत, अच्छे-बुरे के पूर्वनिर्धारित ढाँचों में न रहे, तो उसे घर, समाज, सरकार कोई सपोर्ट करने वाला नहीं। कहने का मतलब यह है कि औरत अपने शोषण का सामान ख़ुद तैयार करे, इसके पीछे बहुत से फ़ैक्टर्स काम करते हैं जिनपर हमारा ध्यान जाना ज़रूरी है।

प्रश्न के दूसरे भाग का जवाब भी पहले में ही है— अच्छी बहू, पत्नी, बेटी, स्त्री वही है जो सेक्सुअल प्यूरिटी (यौनिक पवित्रता) बनाए रखे और इसके द्वारा कास्ट प्यूरिटी (जाति की शुद्धता) बनाए रखे। अच्छा आचरण इसे ही तो माना गया है न?! इसीलिए माँ हमारे समाज में पूजनीय है, मगर अगर वही माँ बिन ब्याही है या सेक्स वर्कर है तो पूजनीय क्या, धिक्कार के योग्य है। नैतिकता या अच्छाई-बुराई यहाँ स्त्री की समाज के प्रति संवेदनशीलता से निर्धारित नहीं होती, उसके रिप्रोडक्टिव और सेक्सुअल निर्णयों पर आधारित होती है। तो हर औरत तक बस यही बात पहुँचना ज़रूरी है कि पित्तृसत्ता और ब्राह्मणवाद द्वारा निर्धारित किए हुए ‘सही’ और ‘ग़लत’ को आग में झोंक दें। एक बार यह भेद मन से पिघल गया, उसके बाद हम कह सकेंगे कि औरत का आचरण कैसा है यह वाक़ई उसका ख़ुद का निर्णय है।

तसनीफ़: ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता का साथ-साथ काम करना कहीं न कहीं यह नहीं दर्शाता कि यह एक हिन्दू समाज से जुड़ा मसला है? हिन्दू समाज से इतर पित्तृसत्ता और मिसॉजिनि को किस तरह समझा जाए?

शिवा: पित्तृसत्ता के अलग-अलग समाज में रूप अलग-अलग हो सकते हैं, मगर ऐसी कोई सोसाइटी नहीं है जहाँ औरत और मर्द के अधिकारों में भेद न हो। भारत में क्योंकि हिन्दू समाज प्रबल है इसलिए इससे उपजे ब्राह्मणवाद को हर धर्म में देखा जा सकता है। सह-जातीय विवाह या अपनी कम्युनिटी में विवाह, जिसे एण्डोगमी कहते हैं, इसका पालन हर समाज कर रहा है—और कारण वही हैं—प्रॉपर्टी और कम्युनिटी की शुद्धता बनाए रखना। तो जो भी समाज अपने दायरे में औरतों को बांधे हुए है, वह ब्राह्मणवादी ही है। भारत से बाहर भी हर समाज में जेंडर के हिसाब से समाज में रोल निर्धारित हैं—घरेलु काम औरत के ज़िम्मे और बाहरी काम आदमी के—यह मानसिकता सभी जगह है। औरत को घर में सीमित कर देना और उसके घरेलु श्रम का बिना मेहनताना दिए इस्तेमाल पूँजीवादी समाज को बनाए रखने में भी कारगर है। औरत के श्रम, यौनिकता, मोबिलिटी पर कंट्रोल हर समाज की असलियत है। इस्लाम में व्याप्त पित्तृसत्ता पर तो बहुत लिखा गया है। जैन और बौद्ध धार्मिक व्याख्यानों को लेकर भी भरपूर काम हुआ है कि कैसे सुधारवादी बुनियाद पर खड़े यह धर्म भी औरतों के मामले में यही सोच रखते हैं कि औरत कंट्रोल में रखने की चीज़ है। अलग-अलग धर्मों में किस तरह पेट्रिआर्की का रूप थोड़ा-थोड़ा भिन्न हो जाता है इसपर अलग से चर्चा की जा सकती है, मगर कोई भी धर्म औरतों के लिए अहिंसात्मक और भेदभाव-रहित होना क्लेम नहीं कर सकता।

तसनीफ़: लड़कियों और औरतों को घर या समाज की इज़्ज़त से जोड़कर देखने में किसका क़ुसूर है? क्या इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना बुरी बात है और अगर एक आम लड़की अपने घर में इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहे तो उसका सही तरीक़ा क्या हो सकता है?

शिवा: पहले भाग का जवाब कुछ हद तक मैं दे चुकी हूँ। क़ुसूर इसमें सीधे-सीधे ब्राह्मणवादी और पित्तृसत्तात्मक सोच का है। प्रॉपर्टी और कास्ट बनाए रखना ही औरत को घर की इज़्ज़त के रूप में देखने का कारण है। जो बाप, बेटी की हर गतिविधि को कंट्रोल करता है वही यह कहता है कि शादी के बाद जो चाहे करना। इसका सीधा मतलब यह है हमें तुम्हारी सेफ़्टी की परवाह नहीं है, जैसा कि हम कहते हैं, हमें परवाह है अपने घर अर्थात अपनी जाति की तथाकथित पवित्रता बनाए रखने की। पार्टीशन के दौरान हमने एक उन्माद देखा था जिसमें हिन्दू, मुसलमान, सिख तीनों धर्मों के आदमियों ने ‘दुश्मन’ की इज़्ज़त मिट्टी में मिलाने की ठान ली थी—इसके लिए औरतों के बलात्कार हुए, उन्हें निर्वस्त्र घुमाया गया, उनके स्तन काट दिए गए। औरतों से यह वीभत्स्ता करने से दुश्मन की इज़्ज़त कैसे ख़राब होती? वो इस तरह होती कि आदमी की सबसे बड़ी हार यह है कि वह अपने घर की औरतों की सेक्सुअलिटी कंट्रोल न कर पाए। माँ-बहन-पत्नी से जुड़ी गालियाँ, उनके चरित्र का महिमामंडन सब इसी मानसिकता से जुड़ा है। यही कारण है कि हिन्दू समाज में अनुलोम (hypergamy) या अपने से ऊपरी जाति में स्त्री का विवाह स्वीकार्य है मगर प्रतिलोम (hypogamy) या अपने से निचली जाति में स्त्री का विवाह इज़्ज़त चले जाने सामान है।

रही बात इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की तो इसका फ़ैसला तो कोई भी औरत या लड़की ख़ुद ही कर सकती है। मेरा अपना मानना यह है कि आपको घर छोड़ना पड़े, सम्बन्धियों से नाते तोड़ने पड़ें, झूठ बोलना पड़े या सड़क पर उतरकर संघर्ष करना पड़े, जिसकी ज़रूरत हो, वह किया जाए। औरत और आदमी की समानता तब तक मुमकिन नहीं जब तक औरत के रिप्रोडक्टिव डिसिज़न उसके हाथ में नहीं हैं और जब तक यह समाज एक जातिवादी समाज है। किसी औरत की परिस्थितियॉं उसे किस हद तक संघर्ष करने देती हैं, यह तो वही जान सकती है। मगर इसके लिए होना वाला हर छोटा-बड़ा संघर्ष महत्त्व रखता है।

तसनीफ़: घर और पति या बॉयफ़्रेंड के इश्क़ में किस हद तक जज़्बाती होने से लड़कियों का ज़्यादा नुक़सान होता है? क्या रिश्ते निभाना और जज़्बात के बजाय थोड़ा-सा होश से काम लेने से वाक़ई हमारे समाज में रिश्ते टूट जाते हैं या घर बिखर सकते हैं?

शिवा: जो रिश्ते असमान अधिकार (power) या आधी-अधूरी स्वीकार्यता पर टिके हों, उनके टूट जाने में भी ख़ास बुराई तो नहीं है। और जज़्बाती होना अपने आप में कोई बुरी बात नहीं है। आदमी भी कुछ और जज़्बाती बनाए गए होते तो शायद इतनी जंगें न होतीं। मगर यह बात ज़रूर सच है कि एक सम्बन्ध में रहते हुए बहुत-से कारण हैं जो हमें इमप्रॅक्टिकल या तर्कहीन बना सकते हैं।

यह सवाल औरतों से पूछे जाने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि वे किस तरह के परिवेश से आ रही हैं, मसलन अगर किसी लड़की ने आजीवन एक कंट्रोल्ड लाइफ़ जी है, या घर-परिवार की तरफ़ से किसी प्रकार की हिंसा झेली है, तो स्वाभाविक है कि एक प्रेम सम्बन्ध में भी उसकी अपेक्षाएँ उसी प्रकार की हो सकती हैं। वह अपने पार्टनर में सिक्योरिटी तलाशेगी। एक ‘अच्छी’ पार्टनर वाले सामाजिक गुण अपनाना चाहेगी। एक अच्छी पत्नी या प्रेमिका का भी ढाँचा हमारे समाज में उपलब्ध है और यह लाज़िमी है कि कोई लड़की उसे ढाँचे से ख़ुद और अपने पार्टनर को देखे। यहाँ दोष भावनाओं का नहीं है, कंडीशनिंग का है। उसे धीरे-धीरे बदला जा सके तो बेहतर, नहीं तो हर लड़की तक कम से कम यह बात तो पहुँचे कि एक अच्छी औरत की परिभाषा उतनी संकरी नहीं है, जितनी समाज ने बना रखी है।

एक बात और जोड़ना चाहूँगी कि ऐसा भी होता है कि आदमी अपनी dominate करने की इच्छाओं को यह कहकर छुपा लेते हैं कि मेरी पत्नी या प्रेमिका तो है ही submissive। प्रोग्रेसिव या प्रगतिशील कहलाने वाले मर्दों को सोचना पड़ेगा कि कहीं उनके submissive होने के पीछे आपका dominating होना ही तो नहीं है?

तसनीफ़: आज़ादी और गिल्ट हमारे यहाँ एक साथ गुत्थम-गुत्था कर दिए गए हैं, यानी लड़की अगर अपनी मर्ज़ी से कोई छोटा-सा भी काम कर ले, तो समाज अगर कुछ न कर पाए तो उसको शर्म दिलाने की और guilty महसूस कराने की कोशिश करता है? इससे कैसे बचा जा सकता है?

शिवा: अपनी मर्ज़ी से जीना इंसान होने का बहुत बुनियादी अधिकार है। वैसे तो क़ानून भी हर किसी को अपने फ़ैसले ख़ुद लेने की स्वायत्ता देता है, मगर ऐसा नहीं भी होता तो भी, कोई भी इंसान किसी के अधीन पैदा नहीं होता। माँ-बाप के भी नहीं। ऐसा करने पर समाज आपको गिल्ट नहीं देगा तो आप समाज के बनाए मूल्यों, आदर्शों व निर्देशों का पालन कैसे करेंगे। इससे कैसे बचा जाए मैं नहीं जानती। मगर इतना ज़रूर है कि बहुत कम उम्र से बच्चों को बताया जाए कि वे ग़ुलाम नहीं हैं— उनकी अपनी इच्छा, स्वायत्ता, स्वाभिमान है जिसकी इज़्ज़त घर के हर सदस्य को करनी चाहिए। दूसरा यह कि बचपन से एक तर्कसंगत समाज हम बच्चों को सौंपें—उन्हें हर बात पर प्रश्न करना सिखाएँ। बच्चों को कोई भी काम क्यों करना है इसका कारण वे पूछें और तभी वह काम करें जब कारण से संतुष्ट हों। बचपन से जिस इंसान को तर्कशील नहीं बनाया गया, वह समाज के स्थापित ढाँचे को ही आख़िरी सत्य मानेगा। तो मुझे तो हमारे सामने दो ही उपाय नज़र आते हैं— वर्तमान पीढ़ी बग़ावत करे, संघर्ष करे और आने वाली पीढ़ी का सही पोषण हो।

तसनीफ़: इसी सिलसिले में एक सवाल ‘मोलेस्टेशन’ के हवाले से भी है कि छोटी उम्र की लड़कियों से लेकर बड़ी उम्र की औरतों तक को कैसे समझ आएगा कि किसी मर्द या लड़के ने उनके साथ ऐसी ज़ियादती की है जो नैतिक तौर पर बेहद ग़लत है?

शिवा: मुझे नहीं लगता कोई भी औरत अपने प्रति होने वाले harassment या molestation को समझती नहीं। अगर किसी लड़की या औरत को अपने साथ किया गया कोई बर्ताव असहज करता है तो मतलब वह ज़ियादती को समझती है। वह इसपर किस तरह रियेक्ट करती है, किसी को बताती है या नहीं, यह एक अलग और महत्त्वपूर्ण मसला है। बच्चे भी किसी भी ग़लत टच पर असहज तो होते ही हैं। तो हमें यहाँ काम इस बात पर करने की ज़रूरत है कि मोलेस्टेशन या किसी भी प्रकार का मौखिक- शारीरिक या मानसिक दुर्व्यवहार रिपोर्ट किया जा सके। कोई भी विक्टिम इतना विश्वास रख सके कि उसकी बात पर विश्वास किया जाएगा और अपराधी पर कार्यवाही की जाएगी। यह ख़ासतौर पर परिवारों को समझने की आवश्यकता है। औरतों से मौखिक शारीरिक दुर्व्यवहार अपनों द्वारा, अपने घरों में सबसे अधिक होता है, मगर हम कितनी MeToo स्टोरीज़ सुनते हैं जहाँ औरतें अपने चाचा, मामा, भाई, पिता आदि पर आरोप लगा पाती हैं? घर की चारदीवारी को हमने ऐसी पवित्रता से जोड़ रखा है कि घर के लोग ही घर में होने वाले दुर्व्यवहारों को दबाते हैं, चाहे इसका औरतों-बच्चों पर कोई भी असर होता हो। एक समाज के तौर पर हमारी ज़िम्मेदारी है कि कोई भी औरत किसी तरह के हरैसमेंट से हमें अवगत कराए तो हम उस पर विश्वास करें, उसके साथ खड़े हों, और अपराधी का बहिष्कार करें। यहाँ अपनी बात को सिद्ध करने का प्रेशर विक्टिम पर नहीं, accused पर हो।

इस दिशा में दूसरा ज़रूरी क़दम है सही सेक्स एजुकेशन। इंसानी ज़िन्दगी का एक अहम पहलू होने के बावजूद सेक्स एजुकेशन से हमारी पीढ़ियाँ वंचित हैं। सेक्स क्या है, जेंडर क्या है, इनके कितने प्रकार हैं, इसके क्या परिणाम हैं, कंसेंट या रज़ामंदी का क्या महत्त्व है इत्यादि बेहद महत्त्वपूर्ण मसले हैं जिन पर घरों में बात होना और सही जानकारी बच्चों ही नहीं, बड़ों के पास भी होना ज़रूरी है।

तसनीफ़: अब ज़रा-सी बात बॉलीवुड, लिटरेचर और मोलेस्टेशन पर कर लेते हैं। ग़ज़ल से लेकर फ़िल्मी गीतों तक में क्या ऐसी बातें हैं जिसकी वजह से मिसॉजिनि के रवैये को बढ़ावा मिलता है या मिल सकता है?

शिवा: यह अपने आप में डिस्कशन का मुद्दा हो सकता है। इसके इतने उदाहरण व पहलू हैं कि इस पर अलग से चर्चा होनी चाहिए। कुछ शब्दों में इसे समेटूँ तो यह कह सकती हूँ कि एक तो हमारा साहित्यिक व कलात्मक समाज औरत को एक म्यूज़ से बढ़कर देख ही नहीं पाया है और दूसरा यह कि आज भी औरतें इन क्षेत्रों में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष ही कर रही हैं। मुझे अपने आसपास इतनी अच्छी कवयित्रियाँ दिखती हैं, मगर साहित्यिक सभाओं-मुशायरों आदि का आयोजन करने वालों को अच्छी लेखिकाएँ जाने कैसे नहीं दिखतीं। हद से हद वे इतना करते हैं कि एक या दो औरतों को टोकन प्रतिनिधित्व के लिए आयोजन में आमंत्रित कर लेते हैं। साथ ही बेहद प्रोग्रेसिव लिखने के बाद भी ये स्पेस औरतों के लिए क़तई सहज मालूम नहीं होते। मुझे याद आता है रेख़्ता का एक मुशायरा जहाँ शायर स्टेज से एक रैंडम लड़की की तरफ़ इशारा कर कहता है— “मोहतरमा आपके गोल गोल गुलाबी गुलाबी गाल बहुत अच्छे लग रहे हैं।” अपने हाथों से गालों को मसलने का इशारा करते हुए कहता है— “एक शेर मोहतरमा के गालों पर अर्ज़ किया है।” और स्टेज पर बैठे वरिष्ठ, युवा शायर व पूरी ऑडियंस ठहाकों और वाह-वाह में डूब जाती है। औरत की ख़ूबसूरती ही औरत की आख़िरी उपलब्धि नहीं है, और ख़ूबसूरती की तारीफ़ का भी एक तरीक़ा होता है, जो न लेखकों को आया है, न फ़िल्मी लिरिक्स लिखने वालों को। फ़िल्मों, गानों, कविताओं, कहानियों सब में दो बातें देखने को मिलती हैं— औरत का ओब्जेक्टिफ़िकेशन और अच्छी व बुरी औरत का साँचा।

मनु धर्म शास्त्र में मनु ने लिखा है कि “औरत उस्तरे की धार, साँप का ज़हर, और आग, सब एक साथ अपने अंदर समाए है।” स्त्रीपुंधर्म में पति-पत्नी के सम्बन्ध की बात करते हुए मनु ने लिखा है कि “बहुत क़रीब से नियंत्रित करने के बाद भी यह औरत के ‘प्राकृतिक गुण’ हैं कि वह प्रेम करने योग्य नहीं, उसका मन स्थिर नहीं, और वह यौनिक रूप से आदमी से छल करने की प्रवृत्ति रखती है। इसके अतिरिक्त उसमें ईर्ष्या, ग़ुस्सा, झूठ, ख़ाली बैठना व आभूषणों से अत्यधिक लगाव रखने जैसे गुण स्वतः ही हैं।” स्त्री की प्राकृतिक संरचना इस प्रकार की बताना स्त्री की तरफ़ घृणा को भी तर्कसंगत क़रार देता है और उसे कंट्रोल करने का रीज़न भी देता है। और मनु की यह सोच हमारे आसपास व्यापक रूप से दिखायी देती है।

क्या तमाम गानों और शेरों का विषय भी यही नहीं होता कि कैसे औरत पर भरोसा न किया जाए, औरत धोखा देती है, प्रेम में छलती है, वग़ैरह-वग़ैरह। तो बात यहीं आकर टिकती है कि एक तो औरतों को ख़ुद कलात्मक होने दें, लिखने दें, उनकी सारी जगह न घेरे रखें और दूसरा अपनी कला में यह मनुवादी सोच न आने दें। मैं जानती हूँ कि यह मुश्किल है, ख़ासकर आदमियों के लिए लेकिन अगर इतनी भी कोशिश आदमियों की तरफ़ से नहीं की जाती तो फिर वे यह कहने योग्य नहीं हैं कि आप फ़लाँ-फ़लाँ लेखक, कवि, गीतकार, अभिनेता को ‘ऐसे ही’ रिजेक्ट नहीं कर सकतीं। या तो समाज को बदलना होगा या उसका हर दुष्कर्म ‘ऐसे ही’ रिजेक्ट कर दिया जाएगा।

पोषम पा
सहज हिन्दी, नहीं महज़ हिन्दी...