‘Yaad Ka Rang’, a poem by Vijay Rahi

“दुष्टता छोड़ो! होली पर तो गाँव आ जाओ!”
फ़ोन पर कहा तुम्हारा एक वाक्य
मुझे शहर से गाँव खींच लाता।

शहर में रहते भूल ही गया था मैं
कि कब बसन्त आता है
कब फागुन का रंग छाता है

मुझे याद है जब तुमने
छुपते-छुपाते अरहर के खेतों में जाकर
गुलाल मल दिया था मेरे गालों पर
जो मेरी आत्मा तक रम गया था

उमड़ उठा मेरी आँखों में प्रेम का समन्दर
उमग उठा तुम्हारा भी अंग-प्रत्यंग

फाग का रंग किसको नहीं भाता
प्रेम का रंग किस पर नहीं छाता
गली मुहल्लों में हर कोई फाग गाता
फागुन आता, हेत बढ़ाता

लोग चंग, ढोलक की थाप पर नाचते गाते
होली में नवान्न को भूनते, बाँटकर खाते
होली पर सारी कायनात सतरंगी हो जाती

भाई लगाते भाभी के रंग
भाभी खेलती होली देवरों के संग
छोटी बुआ बड़े फूफा के हो जाती जंग

ननदें भाभियों को कहाँ छोड़ने वाली थीं
बड़ी भाभी सारी हदें तोड़ने वाली थीं

एक विधवा गोखड़े से
सबको होली खेलते देखती, ख़ुश होती
अचानक उसकी आँख नम हो जाती
लूगड़ी के पल्लू से आँख पोंछकर
भीतर चली जाती

कुछ बच्चे उस पर रंग फेंक देते,
बच्चे पहले डाँट खाते फिर मिठाई पाते

अब वो प्रेम कहाँ? उछाह कहाँ?
अब लोगों को हो गई है रंगों से एलर्जी
अब अच्छी लगती है लोगों को ख़ून की होली
अब होली उदास और रंगहीन हो गई

पर जब जब फागुन आता है
मुझे बासन्ती हवा तुम्हारी याद दिलाती है
मेरी आत्मा में महकने लगता है
तुम्हारी यादों का गुलाबी रंग

इसी गुलाबी रंग से कविता लिखकर
मैं तुम्हें होली की मुबारकबाद देता हूँ।

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विजय राही
विजय राही पेशे से सरकारी शिक्षक है। कुछ कविताएँ हंस, मधुमती, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, राष्ट्रदूत में प्रकाशित। सम्मान- दैनिक भास्कर युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार-2018, क़लमकार द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार (कविता श्रेणी)-2019

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