यह कदम्ब का पेड़ | Yah Kadamb Ka Ped

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥

ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली॥

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्माँ ऊँचे पर चढ़ जाता॥

वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बाँसुरी बजाता।
अम्माँ-अम्माँ कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता॥

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतरकर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥

तुम आँचल फैलाकर अम्माँ वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठीं आँखें मीचे॥

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥

तुम घबराकर आँख खोलतीं, पर माँ ख़ुश हो जातीं।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥

सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'सभा का खेल'

Book by Subhadra Kumari Chauhan:

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सुभद्राकुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान (16 अगस्त 1904 - 15 फरवरी 1948) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है।

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