मैंने चाहा था कि मेरी कविताएँ
नन्हें बच्चों की लोरियाँ बन जाएँ
जिन्हें युवा माएँ
शैतान बच्चों को सुलाने के लिए गुनगुनाएँ

मैंने चाहा था कि मेरी कविताएँ
लोकगीतों की पंक्तियों में खो जाएँ
जिन्हें नदियों में मछुआरे
खेतों में किसान
मिलों में मज़दूर
झूमते गाएँ

किंतु मेरी कविताओं की अजीब ही धुन है
खुले विस्तार से बंद कमरों की ओर जाती हैं
उजली धूप में रहकर
अँधेरे के बिम्ब बनाती हैं

मैं हैरान हूँ कि मेरी कविताएँ
काली हवाओं के बिम्ब
अँधी गुहाओं की हिमशिलाएँ
और वेगवती काली नदियाँ कहाँ से लाती हैं,
किस प्रक्रिया से शहर
जंगल में बदल जाते हैं
जिनमें हिंसक जानवर दहाड़ते हैं

मैं समझना चाहता हूँ यह कैसे होता है

यह सब कैसे होता है
जब दुनिया आराम से सो रही होती है
तब नींद की दुनिया से दूर—
मेरा एक हमनाम आदमी
अंतर्यात्राएँ कर रहा होता है,
हर यात्रा के बाद
वह आदमी मुझे बताता है
कि इन यात्राओं में—
मैंने कोई काली हवा नहीं देखी
किसी काली नदी में नहीं तैरा
किसी जंगल या अँधी गुहा में नहीं भटका,
मैं भटका हूँ इसी कुटिल नगरी के तहख़ानों में
जहाँ आदमी के ख़िलाफ़ साज़िशें होती हैं

हर यात्रा में मुझे बड़ी-बड़ी इमारतें मिलती हैं
जहाँ कोई गोली नहीं चलती
कोई बम नहीं फूटता
किंतु जहाँ मुर्दा गाड़ियाँ हर रात आती हैं
ज़ाहिर है कुछ रहस्यमयी हत्याएँ होती हैं

इन इमारतों में मुझे
दनदनाता हुआ
एक हिंसक, जानवरनुमा आदमी मिलता है
जिसके हाथों में ख़ज़ानों की चाबियाँ
और कुटिल नगरी की काली योजनाएँ होती हैं

मेरा हमनाम मुझे बहुत कुछ बताता है
कि जब वह इन यात्राओं से लौटता है
तो एक जंगल-सी दहशत उसे महसूस होती है
और उसे—
मेरी कविताओं के बिम्ब याद आते हैं

मैं उसकी अंतर्कथाओं से डर गया हूँ
और एक ठंडे आतंक से भर गया हूँ

नहीं, मुझे अपनी कविताओं की हिमशिलाओं,
अँधी गुहाओं
और काली हवाओं के स्रोत नहीं ढूँढने हैं
मैं इन चित्रों, बिम्बों से मुक्ति चाहता हूँ
मैं इनकी अँधी गुहाओं से निकलकर
लोकगीतों की खुली दुनिया में लौटना चाहता हूँ
मेरी माँ इंतज़ार में होगी

मैं माँ के चेहरे की झुर्रियों पर
एक महाकाव्य लिखना चाहता हूँ

मेरी माँ का चेहरा
गोर्की की ‘माँ’ से मिलता है
और अब भी उसका खुरदरा हाथ
कुछ इस तरह से हिलता है
कि जैसे दिन-भर की मशक़्क़त के बाद
वह ‘त्रिजन’ में कोई लोकगीत गा रही हो

मैं चाहता हूँ कि मेरी कविताएँ
माँ के गीतों की पँक्तियों में खो जाएँ
बंद कमरों से खुले चौपालों में लौट आएँ…

कुमार विकल
कुमार विकल (1935-1997) पंजाबी मूल के हिन्दी भाषा के एक जाने-माने कवि थे।