‘Yah Samoochi Duniya Nastik Ho Jae’ by Pallavi Vinod

“तो तुम्हारे हिसाब से ज़िन्दगी के कुछ निश्चित सूत्र होते हैं, ज़िन्दगी उन्हीं में ढली होती है। भावनाओं और अहसासों के बारे में क्या ख़्याल है तुम्हारा?”

मेरे व्यंग्य पर वो मुस्कुराने लगा और बोला, “भावनाओं का ज्वार गुज़रते ही इंसान अपनी मूल अवस्था में आ जाता है या तो एक दूसरे व्युत्क्रम या एक दूसरे के बराबर होने की कोशिश करने लगता है।”

मेरी आँखें उसके रूखे व्यवहार से भीग चुकी थीं। मैं कहना चाहती थी प्यार और समर्पण ज़िन्दगी के बहुत ख़ूबसूरत रंग हैं। उनसे रंगी ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत होती है।

मैं दर्शन की छात्रा, उस पर चित्रकार… मेरी कोमल भावनाओं को वो गणित के जटिल प्रश्नों की तरह सूत्र रूपी तर्क से हल कर देता था, फिर भी हम एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त थे। उस रिश्ते में किसी भी विषय का कोई दख़ल नहीं था।

एक दिन उसने पूछा, “मान लो यह समूची दुनिया नास्तिक हो जाए! धर्म, रीति-रिवाज का नामोनिशां ख़त्म हो जाए, तो क्या होगा?”

मैं बोली, “ऐसा कैसे हो सकता है! ऐसा हुआ तो लोगों से सदाचार की उम्मीद कैसे करेंगे और आज ऐसी बात… तुम तो अपने ईश्वर के पक्के भक्त हो। तुमसे तुम्हारा धर्म ही ख़त्म हो गया तो क्या बचेगा?”

“तो फिर बस प्यार बचेगा, इंसान का इंसान से विभेद ख़त्म हो जाएगा। हमारे तुम्हारे जैसे हर इंसान के बीच खड़ी धर्म और रूढ़ियों की दीवार हमेशा के लिए ढह जाएगी।”

“तो… अब तक तुम इस दीवार से डरते रहे हो!”

“नहीं… यह दीवार तो मैं कब का तोड़ चुका हूँ। मैं हम दोनों के अन्दर बैठे पूजकों से डरता हूँ।”

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भगत सिंह का लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’
जैनेन्द्र कुमार का संस्मरण ‘एक शांत नास्तिक संत: प्रेमचंद’

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