यह कविता यहाँ सुनें:
कभी-कभी मुझे यह साफ़ आसमान से काटी गई एक हल्की
नीली पट्टी लगती है
कभी-कभी दोआबी ज़मीन लिए साड़ी का किनारा
और कभी-कभी जमुना पार गाँव की जमुना देवी
जिसने औरत होने के क्रम में अपना पूर्व उपनाम गँवा दिया है
कभी-कभी मुझे लगता है यह सागर की बेटी है
यह प्रशांतता और गहराई इसने और कहाँ से पायी होगी
यह बात अलग है इसकी गहराई को लोग आत्महत्या के लिए
अधिक चुनते हैं
और शायद आत्महंताओं के अंतिम पलों की छटपटाहट का
सबसे बड़ा ज़खीरा इसी के सीने में होगा
कभी-कभी इच्छा होती है कह दूँ समुद्र से जाकर
कि वह अपनी समुद्रता वापस ले ले
पर तब उस उथलेपन में डूब जाता हूँ
जिसके रेतीले ढेर में माफ़िया बन्दूक़ें रोप दी गई हैं
कभी-कभी जब किनारे बैठे इसके जल को हथेलियों से उलीचता हूँ तो
लगता है
ये जो नसों का जाल बिछा हुआ है मेरे शरीर में
नसें नहीं, यमुना से निकाली गई नहरें हैं
इसे देखने-महसूस करने की सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है, अपने-अपने कोण
इसे अकबर के क़िले के झरोखे से रानी की आँख बनकर देखा जा सकता है
इसे अक्षय बट की जड़े बनकर छुआ जा सकता है
इसमें गोता लगाकर किसी मिथकीय गेंद को हेरा जा सकता है देर तक
कभी-कभी यह जानना मुश्किल होता है यह किधर से किधर बह रही है
ऐसे में निर्जीव पदार्थ बताते हैं इसकी बहाव दिशा…