“रात सोने के लिए है।” यह एक जुमला है और यही सच भी क्योंकि मुद्दतों से फ़र्द इस जुमले की ताईद करते आए हैं। यह जुमला या यूँ कहूं कि नियम इंसान ने ही गढ़ा होगा क्योंकि खुदा को इस बात से शायद ही कोई फ़र्क़ पड़ता हो कि इंसान सुबह सोएगा या रात को। बहरहाल वर्तमान में इंसान आठों पहर सो रहा है और वह भी इतनी गहरी नींद में कि स्वयं कुम्भकरण भी नतमस्तक हो जाए।
अक्सर हम सुबह को सोने के लिए रखकर रात जाग कर बिताने का फैसला करते हैं। बड़ों की भाषा में इसे जगराता तो उत्साही युवाओं की ज़बान में इस प्रक्रिया को ‘नाईट आउट’ कहा जाता है। भले ही फिर नाईट घर के भीतर क्यों ना काटी जाए। शब्दों का सार्थक अर्थ समझकर उसका पालन करना भी एक आर्ट है।
कॉलेज में मेरे सीनियर रह चुके नीलेश मल्होत्रा जो कथित तौर पर एक ट्रैवलर थे और कुछ सालों पहले ही मुंबई शिफ्ट हुए थे किसी काम के सिलसिले में शहर आए हुए थे। रात ग्यारह बजे जब मैं अपने कमरे में बैठा शेरलॉक होल्म्स के तेज़ दिमाग की तारीफ में तालियां बजा रहा था मेरे पास उनका कॉल आया –
“और! लौंडे कहाँ है?”
“221 बी बेकर स्ट्रीट” मैंने कहा।
मेरा जवाब सुनकर ना जाने उन्हें क्या सूझा कि उन्होंने मेरे ऊपर गालियों की बौछार कर दी। जिन शब्दों का उपयोग उन्होंने मेरे लिए किया था उनका इस्तमाल मैं यहाँ इस अफ़साने में नहीं कर सकता क्यूंकि मैं मंटो नहीं हूँ। मंटो होने के लिए हिम्मत चाहिए, हिम्मत एक में ही थी, मंटो वाहिद था।
“माइंड यूअर लैंग्वेज एंड हु आर यू बाई दी वे” मैंने कहा।
“अबे! मल्होत्रा” उनकी आवाज़ में ठिठकपन था।
“अरे सर आप, इतने ज़मानों बाद, यूँ अचानक, इस तरह से” मैंने आश्चर्यचकित होने की सारी सीमाएं लांघ दीं।
“हाँ बे पहचान ही नहीं रहा तू तो, अच्छा सुन चौराहे पर खड़ा हूँ, यहाँ चौकी के पास, जूस की दुकान के सामने। आजा फटाफट, चिल मारेंगे” वे ऑलरेडी चिल्ड थे।
मैं आगे की कहानी बिल्कुल नहीं जानता था, मुझे इस बात का ज़रा सा भी इल्म नहीं था कि मेरा सफ़र मात्र चौराहे तक सीमित नहीं रहकर उससे बहुत आगे जाने वाले था और इसलिए मैं कैपरी और टी-शर्ट में ही चौराहे की ओर निकल पड़ा। जाड़े की ठंडी हवाओं से सराबोर रात में सड़क पर टी-शर्ट पहने चलने वाला एक बस मैं ही नज़र आ रहा था। टी-शर्ट तो और कई लोगों ने पहनी थी मगर “सिर्फ़ टी-शर्ट” हमने ही पहन रखी थी। “स्टड नज़र आने की यह आदत ही तुझे एक दिन नष्ट कर देगी प्रद्युम्न” मैंने ख़ुद से कहा और अपने दोनों हाथ कैपरी की जेबों के अंदर डाल दिए।
चौराहे पर पहुँच कर मैंने मल्होत्रा जी को फ़िर फोन किया। मोबाइल उठाते ही वे बोले – “कार में आजा” और फोन काट दिया।
वहां उस वक़्त, उस समय चार कार खड़ी हुई थीं। मैंने असमंजस में आकर फिर फ़ोन किया और इस बार मैंने बात शुरू की – “यहाँ चार कार खड़ी हैं, आपकी कौनसी है”।
“सफ़ेद वाली” उन्होंने कहा और फोन काट दिया।
मैंने नज़रें घुमा कर देखा तो मेरा दिमाग झन्ना गया। चारों की चारों कार सफ़ेद थीं। “देश में रंग से सफ़ेद कारों और मन से काले लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है” मैंने मोबाइल पर मल्होत्रा जी का नंबर डायल करते हुए कहा।
“अबे कार, सफ़ेद कार, सफेद रिनॉल्डस डस्टर, तेरे लेफ्ट में जूस की दुकान के सामने” उन्होंने परेशान होते हुए कहा और फोन काट दिया, इस बार बड़ी तेज़ी से।
कार में सिर्फ़ मल्होत्रा जी नहीं थे उनके साथ मेरे दो और दोस्त योगेश पराशर और शिव करोड़े भी विराजमान थे। मेरे आते ही योगेश ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा – “चश्मे का नम्बर बढ़ गया है क्या भाई, इतनी बड़ी गाड़ी नज़र नहीं आ रही थी”।
“तुम बढ़ लो पहले तो समझे?, समझे की नहीं” मैंने योगेश को बगल किया और ड्राइवर सीट पर बैठे मल्होत्रा जी से हाथ मिलाते हुए कहा – “सर जी, कैसे हैं” मैंने जी को काफी देर तक खींचा।
“सब बढ़िया भाई, पीछे बैठ जा बात करते हैं” उन्होंने कहा।
पीछे की सीट पर शिव सोया पड़ा था। “नशे में हो” मैंने पूछा। मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसे बगल करके मैं कार में बैठा और गेट बंद कर दिया। गेट बंद होते ही गाड़ी चालू हो गई और गाड़ी चालू होते ही सब रंग में आ गए।
“अब सीधे चार बजे लौटेंगे” शिव ने मेरे गले में हाथ डालते हुए कहा। यह सुनकर मैं ठिठक गया और काफी देर तक ठिठका रहा।
“मगर सर, मैंने कमरे में ताला नहीं लगाया है।” मैंने चिंता जताई।
“अबे तेरे कमरे में सिवाए किताबों के है ही क्या?” वे तीनों हँस दिया। “मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ नहीं” उर्दू के मशहूर शायर जौन एलिया की ग़ज़ल का एक मिसरा मेरे कानों में गूँज उठा।
“हम जा कहा रहे हैं?” मैंने पूछा।
“चाय पीने” मल्होत्रा जी ने अपनी कार का म्युज़िक सिस्टम ऑन कर दिया।
“शायद आप मेरा सवाल नहीं समझे, मैंने पूछा कहाँ जा रहे हैं, ना कि क्या करने जा रहे हैं।” मैंने शिव का हाथ अपने गले से हटा दिया।
“चाय भी तो एक जगह ही है ना दोस्त, चाय तक जा रहे हैं उसे पीने” मल्होत्रा जी मदमस्त थे। एक तो चाय और उस पर आधारित ये फ़लसफ़े मेरे कतई समझ नहीं आते। ज़ाती तौर पर मैं भी चाय पसंद करता हूँ मगर कभी-कभी सोचता हूँ कि आजकल लड़के-लड़कियों ने चाय को रेट कर करके उसे ओवर-रेटेड कर दिया है।
रात ग्यारह बजे से लेकर सुबह के दो बजे तक हमने सिर्फ़ चाय पी और वो भी कितने कप? मात्र एक। घर से मस्ती के मूड में निकलने वाले शख़्स को अपना बटवा भी जांच लेना चाहिए, ये मेरी राय और रिक्वेस्ट दोनों है।
ज़माने भर की बकर करने और एक कप, सिर्फ़ और सिर्फ़ एक कप चाय पीने के बाद हमने शिव और योगेश को उनके घर छोड़ दिया। अब कार में सिर्फ़ तीन लोग थे – मैं, मल्होत्रा जी और थकान। नींद थकान के गर्भ में थी इसलिए यहाँ वह अनकाउंटेबल हो गई थी। कुछ ही देर में हम वापस उस चौराहे पर आ खड़े हुए जहाँ से निकले थे। इससे पहले कि मैं मल्होत्रा जी को बाय कहकर उनसे विदा लेता उन्होंने परम्परा अनुसार मुझे कई एडवाइज़ दिए। उन्होंने कहा कि मुंबई में पैसा कमाना और गँवाना दोनों बहुत आसान है मगर हो सकता है कि कुछ वक़्त के लिए आपको वो काम करना पड़े जिसके लिए आप वहां नहीं गए हैं।
“रात को सोने की आदत छोड़ दो, मुम्बई में लोग दिन-रात काम ही काम करते हैं, रात को भी जागे पड़े रहते हैं तब जाकर कुछ बनते हैं” उन्होंने हिदायत दी।
मैं कार से उतर गया और दरवाज़ा बन्द कर दिया। बन्द दरवाज़े के खुले कांच से अंदर झाँकते हुए मैंने कहा –
“क्या बनते हैं?” हम दोनों मुस्कुरा दिए। कुछ पल बाद उन्होंने कार पलटा ली और मैंने अपनी पीठ।
रात के ढाई बज रहे थे। घर तक जाने वाली सड़क को इतना शांत और अपने क़दमों को इतना आवाज़ करते मैंने आज तक नहीं देखा था। हवाओं की आवाज़ खामोशी को चीर कर अपनी मौजूदगी का एहसास पैहम करवा रही थी। सभी घरों की लाइट्स बन्द हो चुकी थीं और स्ट्रीट लाइट्स पूरी ताक़त के साथ जल रही थीं। उनके नीचे से गुज़रते हुए मुझे बार-बार अपनी परछाई दिखाई पड़ जाती थी। इंसान कभी अकेला महसूस ना करे शायद इसलिए भगवान ने परछाई बनाई होगी। चलते हुए मैंने एक भी बार पीछे मुड़कर नहीं देखा क्योंकि बचपन से मुझे यही लगता है कि एक बार जो आप पीछे मुड़े तो कोई आगे से आकर आपका गला रेत देगा। अच्छा यही है कि आगे देखकर आगे बढ़ा जाए। माज़ी में झांकने से सिवाए दर्द के कुछ नहीं मिलता।
गलियों के जाल से होते हुए जैसे ही मैं अपने घर की ओर जाने वाली गली में मुड़ा तो एक कुत्ता मुझ पर भौंकने लगा। वह गली के सिरहाने पर बैठा उसकी सुरक्षा कर रहा था और स्ट्रीट लाइट की वजह से उसने मुझे दूर से ही देख लिया था। उसके भौंकने में एक पैटर्न था जिसमे मुख़्तसर बातें निहित थीं। मानव यदि दूसरे प्राणियों की ज़बान में छुपे पैटर्न्स को समझने लगे तो कमाल ही हो जाए।
वह लगातार भौंकता रहा। मैं डरा हुआ था मगर उसके सामने से गुजरने के सिवा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मैं धीरे-धीरे सीटी बजाते हुए उसके सामने से ऐसे निकला जैसे मुझे पता ही नहीं कि वह वहां मौजूद भी है। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया उसका भौंकना कम, कम और कम होता चला गया। मुझे जो नींद कार में आ रही थी वह अब उड़ चुकी थी सो घर की छत पर बैठ कर मैं लगभग आधे घण्टे तक उस कुत्ते को देखता रहा। वह वहीं बैठा था एक जैसा, एक ही स्थान पर, चारों ओर नज़र गड़ाए।
“वह कुत्ता है, यह उसका काम है, रात को जागना” मैंने उबासी लेते हुए सोचा और अपने कमरे के अंदर चला गया।
मैंने अपना बिस्तर लगाया, बोतल से दो घूँट पानी पिया और कमरे की लाइट बन्द कर दी। अब कमरे के अंदर भी रात हो गई थी। “मुम्बई में लोग रात को ना सो कर ही कुछ बनते हैं, मुंबई में लोग रात को ना सो कर ही कुछ बनते हैं” मल्होत्रा जी की बात मेरे दिमाग में लगातार घूम रही थी और मुझे सोने नहीं दे रही थी। मैं अंदर जाग रहा था और कुत्ता बाहर।
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(प्रस्तुत कहानी/लघु कथा, इंदौर में मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर रहे प्रद्युम्न आर. चौरे द्वारा लिखी गयी है। अपनी उम्र के बाकी साहित्य के विद्यार्थियों की अपेक्षा प्रद्युम्न का लेखन अच्छी शब्दावली और भाषा के चुटीलेपन दोनों के कारण काफी पठनीय है। प्रद्युम्न कविताएँ भी करते हैं और उनसे यहाँ जुड़ा जा सकता है।)