‘Abolapan’, a poem by Kavita Nagar
मैं और वो
जब भी मिलती हैं, हम दोनों
करती हैं आज़माईश,
एक-दूजे
को जानने की।
मैं बातों-बातों में
मन की कनखियों से
झाँकती हूंँ
उसके दिल में।
पकड़े हुए अपने सम्वाद का छोर।
मैं करना चाहती हूंँ
बातें क़िस्से-कहानियों के
कुछ उम्दा किरदारों की
पर वो तो अपना ही किरदार
भूल चुकी है।
ढूँढ़ते हुए उसके मन में
कोई अनछुआ पहलू
जगाना चाहती हूँ उसे,
मेरे कुरेदने से उसके दिल में भी
उठते तो हैं प्रश्न,
जिन्हें वो ऐसे ही काट देती है
जैसे ठोढ़ी पर उग आये दो अनचाहे बालों को।
जो लगते हैं उसको पुरुषत्व का चिह्न।
मैं चमकाना चाहती हूँ
उसके मन का कोना
और वो बताती रहती है
मुझे बरतन और घर चमकाने के नुस्खे।
मैं चिंतित हूँ
उसके बदले रूप से
जो बहुत कुछ मिलता है
सामने रखे एक यंत्र से।
मैं लाना चाहती हूँ
उसका स्वत्व बाहर।
देकर भावनाओं की बौछार।
उसका ध्यान होता है, मेरी
साड़ी की बिखरी परतों और उलझे बालों पर।
ख़ुद की मन की परतों पर
उसने लगाया है जाने कौन-सा सेफ्टी पिन।
मैं सोचती हूंँ
कहाँ रखकर भूल गयी होगी
यह अपनी बौद्धिकता का बटुआ
जिसमें रख छोड़े हैं
इसने तार्किकता और ज्ञान।
देख देखकर उसे बढ़ता है
मेरा वैचारिक रक्तचाप।
मन ही मन कहते हैं
दोनों कहते हैं एक-दूसरे को
कि कुछ नहीं जानती ये बुद्धू।
ख़ुद ही ख़ुद को सांत्वना देकर
कि पूरा है हमारा ज्ञान।
और इस तरह हमारे बीच
नहीं होता कभी वास्तविक सम्वाद
और पसरा रहता है अबोलापन।
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