अक्सर अपने दायित्व
निभाती ही आयी हैं
हम पूरी शिद्दत से, मगर कभी
अपनी ज़िम्मेदारियों में से
कुछ अगर छूट जाता है तो
हमारा मन हमेशा ही रहता है
एक ग्लानि में।

उधर कहीं दिल के किसी कोने में
ख़ुद के लिए कुछ नहीं
कर पाने का भी होता रहता है मलाल।
दिमाग़ के किसी कोने में
झूलता रहता है यह अपराध बोध।

यह अपराध बोध जन्म से
जैसे गर्भनाल से रिस
फैल जाता है रक्त में।
और धीरे-धीरे आदत में आ जाता हे
बढ़ते हुए वज़न की तरह।

मन-मस्तिष्क पर चढ़ा रहता है
एक भारीपन।
सोचा एक दिन मैंने कि मैं कोई
फ़रिश्ता तो नहीं जो हर बार
हर जगह सब कुछ सही कर पाऊँ
और बेवजह तनाव की
चढ़ी हुई परतों की कर दी
मैंने बैरियाट्रिक सर्जरी।
कम की कुछ संतृप्त चिकनी उम्मींदे।

इस तरह कम हुआ भारीपन
और समझ आया कि बेवजह
मेरा वज़न क्यों बढ़ रहा था।

कविता नागर
नवोदित रचनाकार देवास(म.प्र.) कविता एवं कहानी लेखन में रुचि। सुरभि प्रभातखबर, सुबह सबेरे,नयी दुनिया और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।