‘Bhaav’, a poem by Vivek Tripathi

तुम रो रही होंगी
ज़माना तुम्हें बदचलन कह रहा होगा
तुमने उस बच्चे को जन्म महज़ एक स्त्री भाव के कारण दिया।
दुनिया उस बच्चे के लिए तुम्हें कोस रही होगी
तुम मेरे वहाँ न होने के कारण मुझे कोस रही होंगी
वो बच्चा मुझसे इतर है।
तुम इंतज़ार कर रही होंगी मेरे रोने का
समुद्र की लहरों की कर्कश आवाज़ उसके रोने की है
मैं नहीं रोऊँगा, न प्यार करूँगा
‘मैं पुरुष हूँ’।

दुनिया महज़ भाव का एक अंतरिक्ष है।

इतिहास अतीत मानव की कहानी नहीं है
बल्कि उसके असंगठित भावों की संरचना है
इतिहास के समस्त युद्ध पेट भरने के बाद लड़े गये।
कार्ल मार्क्स का पूंजीवाद महज़ मुठ्ठी भर पैसे वालों का बहुमात्रक ग़रीबों पर शासन करना नहीं था
इतर
कुछ संगठित भावों का अनगिनत असंगठित भावों पर कब्ज़ा था।

शरीर का सबसे बोझिल हिस्सा भावनाएँ होती हैं
हर भावना के अंदर एक दूसरी भावना होती है
जिसका संचालन समाज करता है।

सुकरात को यदि ज़हर नहीं मारता
अब्बू ख़ाँ की बकरियों को यदि भेड़िया नहीं खाता
निश्चित ही इनके तृप्त भाव इन्हें मार देते।
सृष्टि का सृजन और विनाश महज़ भावों का द्वन्द्व है।

किसी स्त्री के प्रति आकर्षण तुम्हारे असंगठित मन के कारण है
दुनिया के समस्त परिवर्तन सबसे असंतुलित मन ने किए हैं
(भारत की आज़ादी स्वंय इसका कारण हैं)

कविता स्वंय अनगिनत भावों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम है।