‘Call Bell Rishton Ki Ghanti’, a poem by Pratap Somvanshi
सिर्फ़ दरवाज़े पर लगी स्विच से
नहीं जुड़ी हुई है यह कॉल-बेल
यह अपनी आवाज़ के साथ
घुली हुई है पूरे घर-भर में
यहाँ हर कोई वाक़िफ़ है
कॉल-बेल के स्वर में उतार-चढ़ाव से
इसी तरह पूरा घर
पढ़ा जा सकता है कॉल-बेल की भाषा में
दोपहर का वक़्त है
एक साँस में सात-आठ बार बजी है कॉल-बेल
स्कूल-बस से उतरकर दरवाज़े तक आ गए हैं बच्चे
ड्रेस उतार फेंकने, खाना ठूसनें और फिर खेलने के लिए
भाग जाने की सारी जल्दबाज़ियाँ दर्ज हैं कॉल-बेल में
आमतौर पर कॉल-बेल की दिनचर्या
शुरू होती है सूरज के जागने से ठीक पहले
दो बार एक साथ बजती है कॉल-बेल
इसका मतलब दादी लौट आयी हैं सैर से
जैसे रात में सोने के ठीक पहले
दो बार भीतर की कुण्डी खींचकर जाँचती हैं
दादी उसी तरह बजाती हैं कॉल-बेल दो बार
उन्हें पसंद हैं ठोस-सुरक्षित और पुष्ट
कॉल-बेल के पास सुबह के कुछ ज़रूरी काम हैं
उसे बजना हैं अपनी लय-गति के साथ-साथ
अंतराल का ध्यान रखते हुए
अगर ऐसा न हो तो इसका मतलब
पेपरवाला, दूधवाला, कामवाली बाई या प्रेस वाली
कोई एक मार गया है छुट्टी बिना बताए
कॉल-बेल सुबह बिलकुल न बजे
तो शक होता है उसके जीवित होने पर
जाँची जाती है उसकी साँस स्विच दबाकर
फिर दोपहर में बजी है कॉल-बेल
इस वक़्त का बजना घर को सख़्त नापसंद है
ख़ास तौर पर माँ को
जो सुबह से रात के बीच
एक-एक मिनट बचाकर जमा करती है
दोपहर में आराम का एक घण्टा
यह कॉल-बेल उसे एक पल में चुरा ले जाती है
जिस दिन करती है कॉल-बेल ऐसा
पूरे दिन कोसी जाती है
पर हाँ,
शाम के तय समय पर ज़रूर बजनी चाहिए कॉल-बेल
देर हो तो बेचैन हो उठता है घर
दफ़्तर में अटक गए
या फिर छूट गई छह बजे वाली बस
कॉल-बेल काल की तरह लगती है
अगर बज उठे बे-वक़्त देर रात
अनिष्ट की आशंका से काँप जाता है घर
अनुमान लगाने लगता है हर कोई
कई बार यूँ भी होता है
जैसा हुआ था दो रोज़ पहले
नीचे की मंज़िल के पड़ोसी आए थे
यह बताने कि खुला रह गया है कूलर का पानी
जिससे भर गई है उनकी बालकनी
पिछले हफ़्ते सोसाइटी का गार्ड भी आया था
तब जलती छूट गई थी कार की हेडलाइट
ऐसे में आलस्य का अलार्म होती है कॉल-बेल
कॉल-बेल बजाने वाला कोई हो
कुछ भी हो उसका भाव और विचार
कॉल-बेल निभाती है सिर्फ़ अपना धर्म
सोती भी है तो आम-ओ-ख़ास को इस ऐलान के साथ
जब ज़रूरत की उँगली आएगी उस तक
बज उठेगी वह।