‘Chehra’, a poem by Prem Prakash

मैं तुम्हारे चेहरे पर हँस सकता हूँ
मैं तुमसे पूछ सकता हूँ
कि कोयले की खदान में क्या
कम पड़ गई थी चट्टान
मैं कह सकता हूँ कि तुम निर्वासित कर दो
अपने चेहरे को अपने अस्तित्वबोध से

मैं तुम्हारे सामने नहीं खोल सकता
अपने महँगे कैमरे का लेंस
सौंदर्य को नरम के साथ
पोर्न मैगजीन को अपने बदन पर ओढ़ने वाले
काग़ज़ की तरह होना चाहिए माँसल’
इश्तेहारों के दौर में
यह बयान सुलेख की तरह कण्ठस्थ है मुझे

मैं तुम्हारे चेहरे पर मलना चाहता हूँ अवलेह
जिसे श्रम की भट्टियों की
महँगी राख से बनाया गया है
मैं बदल देना चाहता हूँ तुम्हारा चेहरा
जैसे बाज़ार में बार्बीज
बदलती रहती है अपना लुक

मैं तुम्हारे चेहरे पर कविता लिखना चाहता हूँ
पर कोई शब्द साथ देने को तैयार नहीं
संवेदना की विनम्र कोशिश
कैसे हाथ मलते रह जाती है
यह विवशता असहनीय है मेरे लिए
मैं इस असहनीयता से दूर निकलना चाहता हूँ
रिहाई चाहता हूँ मैं तुम्हारे चेहरे की बजती ज़ंजीरों से

तुम्हें लिखने की कोशिश में
कसीदे काढ़ने लग जाता हूँ मैं
उन संगमरमरी पत्थरों के बने बुतों के
जिन्हें इतिहास के सबसे क्रूर राजाओं ने
नींद की गोली की तरह इस्तेमाल की गयी
लौंडियों के नाम पर बनवाए हैं

मैं तुम्हारे चेहरे को इस सदी से बाहर
पाँच हज़ार साल की स्मृति से बाहर
फेंक देना चाहता हूँ
नहीं है ऐसे चेहरे की अब कोई गुंजाइश
बीत चुका है ऐसे चेहरों का दौर
सरकार से लेकर संवाद और संवेदना
सबके डिजिटल हो जाने के बाद

चेहरे का मतलब रंग होता है
चेहरा रौनक की बड़ी बहन है
काला या साँवला कोई रंग नहीं
अभिशाप है अभिशाप
चॉकलेट के रैपर से लेकर
भगवान की किताब तक
आज सब रंगीन हैं
सबके आवरण पर है
रौशनी का महोत्सव

मैं तुम्हें चेहरा कहना भी नहीं चाहता
तुम चेहरा हो भी नहीं सकती
तुम तो छाया हो बस
एक ऐसी छाया
जो कभी मेरे सिर के ऊपर से
तो कभी पाँव के बीच से गुज़री है
एक ऐसी छाया
जो मन की धूप को रोक लेती है
ख़ुद को और जलाने के लिए

तुम्हारे चेहरे पर मेरी आँखें, मेरे सपने
दोनों मिलकर रोज़ गाते हैं शोकगीत
एक ऐसा शोकगीत
जो चेहरे को सौंदर्य
और सौंदर्य को माँसल खरोंच से भर देने की यातना पर
अभिभूत न होने के दुःख से जन्मा है

तुम्हारे चेहरे के कारण
आईनों ने झूठ बोलना सीख लिया है
इन आईनों ने ही तो सबक रटाया है औरत जात को
कि वह चेहरे को सिंदूर की सीध में नहीं
किसी पुरुष की रीढ़ में देखे
कि चेहरा सौंदर्य की डाल पर खिलने के लिए
नाख़ूनों में भरने के लिए होता है
संस्कृति और विकास का तेज़ाब मलने के लिए होता है!

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