‘December’, a poem by Kavita Nagar
दिसम्बर!
दीवार पर टंगा हुआ
दिसम्बर गिन रहा है
बार-बार अपनी ही
बची हुई तारीख़ों को।
कुछ-कुछ अलहदा
सा है।
विदा लेता महीना।
उसकी रगों में नमी
है सीलेपन की।
मन में पसरा है
ठण्डापन।
पूरे बरस की बिखरी हुई
ओस उसके हिस्से आयी है।
ग़मगीन मन का नमकीन स्वाद है।
पथराई-सी आँखों में
सर्द-सी यादें हैं।
वह धीमे-धीमे
चुपके-से डग
भरता है
विदाई की पदचाप
सुनायी दे रही है।
उसके पहलू में
सब महीनों के
क्रियाकलाप,
जोड़ घटाव, गुणा भाग
है सारा लेखा-जोखा और
यही उसकी जमापूँजी।
मन थामे रहता है,
सौंपता है जागीर
जनवरी के हाथों में,
इसलिए लेखा-जोखा लेकर
चला जाता है, सौंपकर
नये साल को अपनी जमापूँजी और ज़िम्मेदारी।
जानता है
क़िस्मत में उसकी
ठहरना नहीं है, वो
अंतिम समय का
मुसाफ़िर है।
इसीलिये ठण्डा है
तन और मन से।
यूँ तो जनवरी की भी
ठण्डी है तासीर, पर
उसकी रगों में है नया ख़ून
गर्म और उबलता हुआ।
जवाँ है जनवरी और
बूढ़ा है दिसम्बर।
गिनती की साँसें हैं
जो ठण्डी पड़ रही हैं
धीरे-धीरे,
अपनी ठण्डी देह के साथ
वह जा रहा है।
अपने हिस्से के निभाकर फ़र्ज़,
और देकर कुछ सौगातें।
सबको ही तो चले जाना है
एक दिन इसी तरह।