धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है
यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो
आज आँधी गाँव से होकर गुज़रती है
कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में
मीत अब यह मन नहीं है, एक धरती है
कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा
एक चिड़िया इन धमाकों से सिहरती है
मैं तुम्हें छूकर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है
तुम कहीं पर झील हो, मैं एक नौका हूँ
इस तरह की कल्पना मन में उभरती है!