‘Gati Ke Antim Chhor Tak’, a poem by Priyantara Bharti
गति के अन्तिम छोर तक…
अमलतास के पीले फूलों से लैस मेरी देह मुझे नहीं छोड़ती
महुआ के स्निग्ध बीज मेरे भीतर की तरलता में घुले हुए हैं
हरसिंगार मेरी आत्मा की अदृश्यता में उठती हूक है।
बग़ैर फूल और पत्तियों के जीना, बिना खाल की तरह जीना है!
फिर भी हम यायावर हैं यारों…
यात्राओं के बनिस्बत ठहरना हमें मना है।
खाल खूँटी पर टाँग आए तो मांसपेशियों से चलो,
मांसपेशियाँ धूप में पिघल जाएँ तो हड्डियों से चलो,
हड्डियाँ ठण्ड की कँपकँपी में जम जाएँ
तो घिसी हुई एड़ियों से चलो,
दो एड़ियाँ अगर रास्तों के मार्फ़त बिछड़ जाएँ
तो आत्मा के हाथों से चलो!
हमें पेड़ की वह देह मिल जाएगी, जहाँ हमें ठहरना है।
दुनिया के सर्वाधिक द्रुतगामी जीवों में भी कभी ठहर जाने की अथक तृष्णाएँ उभरती हैं।
और इस तरह मंज़िल तक़ आते ही,
अंत और अनंत के पहले…
एक फ़िल्म ख़त्म होती है,
जैसे मंज़र हो किसी मख़मल के पर्दे की तरह आँखों के आगे…!