हताशा का अरण्य बहुत ही घना होता है
वहाँ का हर पेड़ एक-सी शक्ल का लगता है
कोई अगर अलग दिखता है तो वह हम ख़ुद।
उस अरण्य के बीचोबीच से केवल एक ही सड़क गुज़रती है
जिसके चौराहों पर पगडण्डियों के पैर काटकर लटका दिए जाते हैं।
मैं हताश हो जाती हूँ, हाँ! पर नाउम्मीद नहीं,
दोनों में अन्तर समझती हूँ
इसलिए एक उम्मीद लिए चल देती हूँ नंगे पैर
किसी और अरण्य की ओर।
फिर जब बहुत दिनों तक चलते-चलते पैरों के छालों से फफूँद पिचक आती है
तब जो पहला खण्डहर दिखता है, उसकी छाँव की ओट में किसी नवजात-सी लेट जाती हूँ।
जाग खुलती है तो आभास होता है मैं कितना मीठा सोयी
धूप, पेड़ों की छाननी से छनकर मेरे बदन पर जब गर्म चाय-सी गिरती है तब
हर जगह जंगली मशरूमों के मुहाँसे फूट आते हैं।
मैंने एक अन्तिम बार अपने पैरों की ओर नज़र दौड़ायी
फफूँद की धरती पर नन्हे अंकुर उग आए थे
उम्मीद के अरण्य का उदय हो चला था
एक गहरी लम्बी साँस लेकर मैंने आँखें मीच लीं
शायद फिर क्या पता एक दिन मैं हताशा का अरण्य ढूँढने निकल जाऊँ!