एक ख़ुद्दार आदमी
अधिकतर हारता दिखता है ज़िन्दगी की रेस में,
रीढ़ की सीधी हड्डी की वजह से
बहुधा नहीं झुक पाता अनुकूल अवसरों पर,
मौक़ा देख नहीं लगा पाता छलांग
रसदार फलों से लदे वृक्षों पर,
समय की अतिवृष्टि से बचने को
होते नहीं उस पर अभयदान के छाते।

मैंने देखा है ख़ुद्दार आदमी को
अधिकतर ख़ामोश
पसीना बहाते
दो और दो चार का हिसाब लगाते
उपेक्षा की शुष्क हवा से चेहरा पोंछते
छिले घुटनों पर धैर्य का मरहम लगाते।

मैंने ऐसे आदमी के भाल पर
भविष्य का सूरज उगते देखा है
देखा है कई बार रक्ताभ हथेलियों में
हौंसलों की कुदाल थामे
नित नई सम्भावना खोजते हुए…
गिड़गिड़ाते, लपलपाते
द्वार पर तुरही बजाते
कभी नहीं देखा कोई ख़ुद्दार शख्स,
उसे किसी छाया या तने के सहारे
सीढ़ियाँ चढ़ते नहीं देखा,
देखा ज़रूर फिसलते ऊँचाइयों से
लेकिन हताश, कोसते क़िस्मत को
पुकारते किसी को नहीं देखा।

मुझे उसमें ही दिखी सुनहरी सुबह
दृढ़ इच्छा शक्ति दुनिया को बदलने की
मैंने उसे ईश्वर की तरह शांत और अविचलित देखा।

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