किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित ‘दुष्यंत कुमार रचनावली’ से
दर्दे-सर
बम्बई में महावीर अधिकारी दुष्यन्त कुमार को लेकर धर्मवीर भारती के घर पहुँचे और बोले, “यह तुमसे मिलने के लिए बहुत व्यग्र था, लो सम्भालो अपने मेहमान को।”
“मगर तुम कहाँ चले?” भारती ने पूछा।
“मेरे सर में अचानक दर्द उठ खड़ा हुआ है, मुझे जाकर एस्प्रो लेनी होगी।” अधिकारी गम्भीर हो गए।
भारती ने उठकर दुष्यन्त को गले लगा लिया। बोले, “आज तक जिससे अधिकारी मिलते थे, उसके सर में दर्द होता सुना गया था। आज पहली बार तुम उनसे मिले और उनके सर में दर्द हो गया। मानते हैं तुम्हें।”
शिकायत का जवाब
कमलेश्वर की देखा-देखी उनकी बिटिया मानू भी अपनी अम्मा को गायत्री कहकर पुकारने लगी। यह बात गायत्री को नागवार गुज़री तो उन्होंने कमलेश्वर से शिकायत की, “देखिए, आप मुझे गायत्री-गायत्री कहते रहते हैं न, इसलिए मानू भी मुझे गायत्री ही कहने लगी है।”
“तो गायत्री, मानू के कारण मैं तुम्हें मम्मी तो कहने से रहा।” कमलेश्वर ने निहायत संजीदगी से उत्तर दिया।
सही उत्तर
मन्नू भण्डारी दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने इंटरव्यू की बातें बता रही थीं, “मुझसे पूछा गया, आख़िर मोहन राकेश की कहानियों में ऐसी क्या बात है, जिसके कारण वे जीवित रहेंगी?”
“राकेश ने बात पकड़ ली और फ़ौरन राजेन्द्र यादव पर छींटाकशी शुरू कर दी, “देखा प्यारे, अब हम मास्टर्स की श्रेणी में पहुँच गए। यूनिवर्सिटीज़ तक में हम पर प्रश्न पूछे जाने लगे हैं। और तुम, तुम ही रहे।”
“यार, बात तो पूरी हो जाने दे।” राजेन्द्र ने झुँझलाकर कहा और मन्नू से पूछा, “हाँ जी, तुमने क्या उत्तर दिया?”
“मैंने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है।” मन्नू बोलीं और एक ज़ोरदार ठहाके से कमरा गूँज उठा।
(10 अक्तूबर, 1965 के ‘धर्मयुग’ साप्ताहिक में प्रकाशित)
प्रतिक्रिया
मध्य प्रदेश का एक साप्ताहिक पण्डित द्वारिकाप्रसाद मिश्र की बहुत आलोचना किया करता था, किन्तु मिश्र जी ने अपने स्वभाव के अनुसार कभी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। आख़िर प्रतिक्रिया जानने की उत्सुकता से उसके सम्पादक एक दिन एक परिचित सज्जन के साथ मिश्र जी के पास जा पहुँचे। मिश्र जी ने उनके अख़बार के विषय में एक शब्द भी न कहा। आख़िर जब बातचीत ख़त्म करके उठने को हुए तो सम्पादक महोदय से न रहा गया और उन्होंने पूछ ही लिया, “पण्डित जी, आप मेरा साप्ताहिक तो देखते ही होंगे! कोई सुझाव?”
मिश्र जी गम्भीरतापूर्वक बोले, “आप उसे दैनिक कर दीजिए।”
आलोचना का कार्य
धनंजय वर्मा गम्भीरतापूर्वक मेरी पत्नी को भाषण दे रहे थे, “लोगों ने साहित्य को मज़ाक बना रखा है। आलोचना के क्षेत्र में तो यह अराजकता सबसे अधिक है। हर आदमी एक लेख लिखकर आलोचक बन जाता है। मगर मैं कहता हूँ भाभी जी, कि आलोचना का कार्य कोई हँसी-खेल नहीं है।”
“यही तो मैं आपसे कई बार कह चुकी हूँ।” श्रीमती जी का उत्तर था।
दूरअंदेशी
श्री मुमताजुद्दीन (भू०पू० सेक्रेटरी, बोर्ड ऑफ़ सेकण्डरी एजूकेशन) एक बार मोटर से कहीं जा रहे थे कि रास्ते में एक गाँव के पास उनकी मोटर ख़राब हो गई। श्री मुमताजुद्दीन बहुत परेशान हुए। गाड़ी को बहुत धकेला, मगर वह स्टार्ट न हुई। उसी समय गाँव का एक बुज़ुर्ग आदमी अपनी पत्नी के साथ उधर आ निकला और उसने बड़ी सहानुभूति से अपनी भाषा में पूछा, “क्या हुआ बाबूजी?”
“गाड़ी चलती नहीं।” मुमताजुद्दीन साहब ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
“कितने की है ये गाड़ी?” किसान ने अगला प्रश्न किया।
“पन्द्रह-सोलह हज़ार की।” मुमताजद्दीन साहब ने जवाब दिया।
किसान ने आश्चर्य से आँख फाड़कर पहले गाड़ी की ओर, फिर अपनी पत्नी की ओर देखा और बड़ी गम्भीरता से बोला, “कैसे-कैसे अनाड़ी लोग हैं इस दुनिया में भी? अरे, जहाँ पन्द्रह हज़ार की गाड़ी ख़रीदी थी, वहाँ पाँच सौ रुपए के बैल भी ख़रीद लेते, तो आज ये दिन काहे को देखना पड़ता?”
सरकारी क़ानून
एक बार हरिशंकर परसाई भोपाल आए तो मैंने उन्हें अपने घर सुबह के भोजन पर बुलाया। खाने के बाद परसाई ने कहा, “अब मैं चलूँगा, फिर तुम्हें भी दफ़्तर जाना है।”
“तुम्हें क्या काम है, तुम भी साथ चलो।”
“नहीं, मैं ज़रा आराम करूँगा।”
“तो क्या हुआ,” मैंने सुझाव दिया, “वहीं आरामकुर्सी पर लोट लगाना।”
परसाई गम्भीर हो गए। बोले, “लगता है तुम्हें सरकारी नौकरी के क़ायदे-क़ानून मालूम नहीं हैं। पार्टनर, सरकार में सोने की बेशक मुमानियत नहीं है, मगर दफ़्तर में वही सो सकता है, जिसे सरकार से तनख़्वाह मिलती हो। मैं कोई सरकारी कर्मचारी थोड़े ही हूँ।”