सुबह की लाली में
दिखता है माँ, तुम्हारा
दमकता-सा चेहरा,
रश्मियों को झाड़ू बना
तुम बुहार देती हो
अब भी मेरा
बिखरा हुआ कमरा।

कई दिनों से सोए-ऊँघते
कम्बल-चादर को
झाड़कर जब मैं
तोड़ती हूँ आलस्य की
अपनी सारी रस्सियाँ,
तब माँ,
बहुत याद आती हो तुम
इस बे-दिल दिल्ली में,
जहाँ एक दीवार भी
दूसरी से पराई है।

बनाती हूँ चाय
जब होती हूँ अकेली,
सोचती हूँ-
तुम भी मेरी तरह
बना रही होंगी दो कप
बिना शक्कर वाली चाय,
भोपाल वाले हमारे घर में,
एक अपने लिए,
दूसरी भी यूँ ही।
तब याद आती होगी
गुमसुम पापा की भी…।
उस वक़्त—
यहाँ हर घूँट में
महसूस करती हूँ तुम्हें,
निहारती हूँ आईने को,
तब तुम्हें ही देखती हूँ
ख़ुद में।
सोचती हूँ बन जाऊँ
तुम्हारी माँ एक दिन
और सुलझाऊँ
तुम्हारे उलझे केश,
बनाऊँ तुम्हारे लिए
कढ़ी-चावल और कुछ
खट्टे-मीठे अचार,
ठीक उसी तरह जैसे
बनाया करती थीं तुम
बचपने में कभी मेरे लिए।
फिर मन करता है,
सुलाऊँ तुम्हें ज़िद करके
गाते हुए देर तक लोरियाँ।

सुनती हूँ जब
कि
आया है तुम्हें बुख़ार
या बढ़ गई है बीपी,
तब नींद में ही
चल देती हूँ यहाँ से,
खड़ी रहती हूँ थर्मामीटर
और दवाइयाँ लिए
तुम्हारे सिरहाने रात-भर।
तकिए के नीचे
छुपा देती हूँ
अपनी सारी ख़ुशियाँ,
ठीक वैसे ही जैसे
तुम किया करती थीं
कभी-कभी मेरे लिए।

सुन रही हो न माँ!
बहुत याद आती हो तुम
इस बेदर्द दिल्ली में,
जब मुस्कुराती है धूप।

सोचती हूँ कि
तुम छत पर बैठी
गुनगुना रही होंगी
मेरी विजय का गीत,
तब मैं भी कर रही
होती हूँ एक युद्ध
संशय में लिपटी रातों से।
आँसुओं के सैलाब में
डूबने नहीं देती
सपनों का वह जहाज़,
जो कभी-कभी तैरता है
तुम्हारी आँखों में भी।
और जब
ढलते हुए सूरज की लाली में
जलाती हो उम्मीदों का दीप
मेरे लिए, तो
मैं वहीं कहीं होती हूँ,
बुहार रही होती हूँ
सारी बलाएँ,
तुम्हारी सुखद नींद के लिए।
तुम्हारी मुस्कान से
बटोर रही होती हूँ शक्ति
एक-एक पग
बढ़ने के लिए आगे,
जैसे—
तुम्हारी ऊंगली पकड़कर
कभी चली थी मैं
पहली बार,
वैसे ही माँ अब
तुम चल लेना साथ मेरे।

सुनो न माँ,
बहुत याद आती हो तुम
इस बे-दिल दिल्ली में…।