ग़ुलाम देश देखा नहीं, न आज़ादी के मतवालों को देखा, शहीदों के ललाट पर लहू की लालिमा भी हम देख नहीं पाये और न ही हिंसाहीन बापू को रूबरू देखा।
आज महात्मा के आश्रम में साबरमती के संत की चेतना बिखरी देखी तो जिज्ञासु तन्तु आश्रम के अथक पावन श्रम को, खपरैल के शिखर से सबरमती के तल तक निहारते रहे, कि संत का महात्मन कितना महान रहा होगा।
आयताकार व्यवस्थित लघु कक्षों में विशाल प्रकाश पुंज कैसे समाया होगा, वायु वेग ठहर तो नहीं जाता होगा सरलता की उस सरसता के समक्ष।
इस तट ने चरखे का कपास से प्रेम बुनते देखा है, ठहरा हुआ यह कुटीर सूत के स्वावलम्बन की दास्तान कहता है।
कितने अरसे से किसी मासूम से नहीं सुना कि माँ खादी की चादर दे दे… मैं भी गाँधी बन जाऊँ।
बा की रसोई में सात्विकता का अस्तित्व अब भी महकता है, उनके सुकून भरे शयनालय के सामने आज के वैभव अभावग्रस्त हैं।
उस वक़्त के वृक्षों से, सदानीरा साबरमती से, चौकठ की काठ से और अर्श के फ़र्श से अवज्ञा और अहिंसा से बातें करके मोहनदास से राष्ट्रपिता के ‘हे राम’ तक के प्रवाह का अलौकिक अहसास होता है।
सविनय,
〽️ © मनोज मीक
साबरमती आश्रम अहमदाबाद से।
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