संयुक्त राष्ट्र ने जुलाई 12 का दिन ‘मलाला दिवस’ घोषित किया है। 12 जुलाई, 2013 को अपने 16वें जन्मदिवस पर मलाला ने यह भाषण दिया:
माननीय संयुक्त राष्ट्र जनरल मि. बन की-मून, जनरल एसेम्ब्ली के प्रेसीडेंट वुक जेरेमिक, वैश्विक शिक्षा के राजदूत मि. गोर्डन ब्राउन, आदरणीय सज्जनो एवं मेरे प्यारे भाई-बहनो! अस्सलाम वालैकुम!
आज एक लम्बे अरसे बाद मुझे फिर से बोलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इतने सम्माननीय लोगों के बीच होना मेरे जीवन का एक यादगार पल है। साथ ही, यह मेरे लिए गर्व की बात है कि यह शॉल जो मैंने ओढ़ा हुआ है, स्वर्गीय बेनज़ीर भुट्टो का है।
मुझे समझ नहीं आ रहा है कि बात कहाँ से शुरू करूँ। मुझे यह भी मालूम नहीं है कि लोग मुझसे क्या सुनने की उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन सबसे पहले उस ख़ुदा का शुक्रिया जिसकी नज़रों में हम सब एक हैं। साथ ही, हरेक उस शख़्स का भी शुक्रिया जिसने मेरे जल्दी ठीक होने और नई ज़िंदगी के लिए दुआ की है। मुझे विश्वास नहीं होता कि लोगों ने मुझे कितना प्यार दिया है। मेरे पास दुनिया-भर से हज़ारों शुभकामना पत्र और तोहफ़े आए हैं। इसके लिए आप सबका शुक्रिया! उन बच्चों का भी शुक्रिया जिनके मासूम लफ़्ज़ों ने मेरी हिम्मत बढ़ायी। मेरे बड़ों का भी शुक्रिया जिनकी दुआओं ने मुझे ताक़त दी। मैं पाकिस्तान, यू.के. के अस्पतालों के डॉक्टरों, नर्सों तथा सभी कर्मचारियों के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात की सरकार का भी शुक्रिया अदा करना चाहूँगी जिन्होंने मेरा स्वास्थ्य और मेरी ताक़त लौटाने में मदद की।
मैं यू.एस. सेक्रेटरी जनरल बन की-मून के ग्लोबल एजुकेशन फ़र्स्ट इनीशिएटिव (Global Education First Initiative), वैश्विक शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्यों का यू.एन. विशेष दूत गोर्डोन ब्राउन तथा यू.एन. जनरल असेम्बली के आदरणीय प्रेसिडेण्ट वुक जेरेमिक का पूर्ण समर्थन करती हूँ। मैं उनके द्वारा दिए जा रहे सतत् नेतृत्व का भी शुक्रिया अदा करती हूँ। वे हमें सदा काम करते रहने को प्रेरित करते रहते हैं। प्यारे भाई-बहनो, एक बात याद रखिए। मलाला दिवस मेरा दिन नहीं है। आज का दिन हर उस औरत, हर लड़के और हर लड़की का है जिसने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी है।
ऐसे सैकड़ों मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा समाजसेवी हैं जो न सिर्फ़ अपने अधिकारों की बात करते हैं बल्कि शान्ति, शिक्षा और समानता के क्षेत्रों में अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए संघर्ष भी करते हैं। आतंकवादियों द्वारा किए गए हमलों में हज़ारों लोग मारे गए और लाखों घायल हुए। मैं सिर्फ़ उनमें से एक हूँ और कइयों के बीच एक लड़की के रूप में खड़ी हूँ। मैं न सिर्फ़ अपनी बात कर रही हूँ बल्कि उनकी भी, जिनका एक शब्द भी सुनायी न पड़ा। वे जो अपने अधिकारों के लिए लड़े, शान्ति से रहने के लिए लड़े—उनके अधिकारों को गौरव के साथ देखा जाना चाहिए। समानता का अवसर दिया जाना उनका अधिकार है। शिक्षित होना उनका अधिकार है।
प्यारे दोस्तो, 9 अक्टूबर 2012 को तालिबानों ने मेरे माथे के बाएँ हिस्से में गोली मारी। मेरी सहेलियों को भी उन्होंने गोलियाँ मारीं। उन्होंने सोचा था कि उनकी गोलियाँ हमें शान्त कर देंगी, पर वे नाकाम रहे। और उस ख़ामोशी में से हज़ारों आवाज़ें उठीं। आतंकवादी सोचते थे कि वे हमारे इरादों को बदल देंगे और हमारे मक़सद रोक पाएँगे। लेकिन मेरी ज़िन्दगी में कोई बदलाव नहीं आया सिवाय इसके कि कमज़ोरी, डर और नाउम्मीदी का ख़ात्मा हो गया। ताक़त और हौसलों का जन्म हुआ। और मैं भी वही मलाला हूँ—मेरी महत्वाकांक्षाएँ भी वही हैं, मेरी उम्मीदें भी वही हैं और मेरे सपने भी वही हैं। प्यारे भाइयों और बहनों, मैं किसी के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, न ही मैं यहाँ तालिबान या किसी आतंकवादी गुट के ख़िलाफ़ अपनी व्यक्तिगत किसी रंजिश के विषय में बोलने के लिए खड़ी हूँ। मैं यहाँ हरेक बच्चे के शिक्षा के अधिकार को लेकर बोलने आयी हूँ। मैं चाहती हूँ कि तालिबान तथा अन्य आतंकवादियों तथा उग्रवादियों के बेटे-बेटियों को भी शिक्षा मिले। मुझे उन तालिबानों से भी नफ़रत नहीं जिन्होंने मुझे गोली मारी थी। यदि मेरे हाथ में एक बन्दूक़ हो और वह तालिब मेरे सामने खड़ा हो तो भी मैं उसे गोली नहीं मारूँगी। यही वह हमदर्दी का सबक है जिसे मैंने दया के मसीहा मुहम्मद, ईसामसीह तथा भगवान बुद्ध से पाया है। इस बदलाव को मैंने मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मण्डेला और मुहम्मद अली जिन्ना से वसीयत की शक्ल में पाया है।
अहिंसा के इस दर्शन को मैंने गाँधी, बच्चा ख़ान और मदर टेरेसा से सीखा, और इस प्रकार माफ़ कर देना मैंने अपने अब्बू और अम्मी से सीखा। इसलिए मेरी आत्मा मुझसे कहती है—शान्त रहो और सबको प्यार करो।
प्यारे भाइयो और बहनो, हमें रौशनी की अहमियत तब पता चलती है, जब हम अँधेरे में घिरे होते हैं। हमें अपनी आवाज़ की अहमियत तब पता चली, जब हमें ख़ामोश किया गया। उसी प्रकार जब हम स्वात, उत्तरी पाकिस्तान में थे, हमें क़लम और किताबों की अहमियत तब पता चली, जब मैंने बन्दूक़ें देखीं।
एक समझदार कहावत है—क़लम की ताक़त तलवार से ज़्यादा होती है। यह सच है। उग्रवादियों को क़लम और किताबों से डर लगता है। शिक्षा की ताक़त उन्हें डराए रखती है। उन्हें औरतों से डर लगता है। औरतों की आवाज़ उन्हें डराए रखती है। यही कारण है कि उन्होंने हाल ही में किए गए हमलों में क्वेटा में 16 मासूम छात्रों को मार डाला। इसी कारण उन्होंने अध्यापिकाओं को मार डाला। यही कारण है कि वे आए दिन स्कूलों को ढहा रहे हैं क्योंकि वे पहले और अब भी समानता के बदलाव के कारण डरे हुए हैं जो हम अपने समाज में लाएँगे। और मुझे याद है, मेरे स्कूल के एक लड़के से एक पत्रकार ने पूछा था, “तालिबान शिक्षा के ख़िलाफ़ क्यों हैं?” उसने बेहद साधारण तरीक़े से अपनी किताब की तरफ़ इशारा करते हुए जवाब दिया था, “एक तालिब को यह पता ही नहीं होता कि किताब के अन्दर क्या लिखा है?”
वे सोचते हैं कि ख़ुदा बहुत छोटा है, बहुत कम रूढ़िवादी—उनके प्रति जो सिर्फ़ स्कूल जाने के नाम पर लोगों के सिरों पर बन्दूक़ तान देते हैं। अपने व्यक्तिगत फ़ायदों के लिए ये आतंकवादी इस्लाम के नाम का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। पाकिस्तान एक शान्तिप्रिय लोकतांत्रिक देश है। पश्तून अपने बेटे-बेटियों के लिए शिक्षा चाहते हैं। इस्लाम शान्ति, मानवता और भाईचारे का धर्म है। यह उसका फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारी है कि वह हर बच्चे को शिक्षा उपलब्ध कराए। शिक्षा के लिए शान्ति की भी ज़रूरत होती है। संसार के कई हिस्सों, ख़ासकर पाकिस्तान में तथा अफ़गानिस्तान में आतंकवाद, युद्ध तथा मतभेदों के कारण बच्चों का स्कूल जाना बन्द हो गया है। हम सचमुच इस प्रकार के युद्धों से थक चुके हैं। संसार के कई भागों में औरतों और बच्चों पर कई प्रकार से इनका दुष्प्रभाव पड़ा है।
भारत में मासूम और ग़रीब बच्चे मज़दूरी करने को अभिशप्त हैं। नाइजीरिया में कई स्कूल बर्बाद कर दिए गए। अफ़गानिस्तान के लोग उग्रवाद से प्रभावित हुए। जवान लड़कियों को घरेलू नौकरों की हैसियत से काम करना पड़ता है तथा उनकी शादी कम उम्र में ज़बर्दस्ती कर दी जाती है। ग़रीबी, अज्ञानता, अन्याय, जातिवाद और मूलभूत अधिकारों का न दिया जाना आदि ऐसी कुछ समस्याएँ हैं जिनका सामना पुरुषों तथा महिलाओं—दोनों को ही करना पड़ रहा है।
आज मैं आपका ध्यान औरतों के अधिकारों और बच्चियों की शिक्षा की ओर दिलाना चाह रही हूँ क्योंकि सबसे अधिक वे ही प्रभावित हो रही हैं। एक समय ऐसा भी था जब महिला कार्यकर्ता पुरुषों को अपने अधिकारों के लिए कहती थीं। लेकिन अब यह काम हम ख़ुद करेंगे। मैं पुरुषों से यह नहीं कहूँगी कि वे महिलाओं के अधिकारों की बात न करें लेकिन मेरा महिलाओं से अनुरोध है कि वे स्वतन्त्र बनें और अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ें। अतः प्यारे भाइयो और बहनो, अब आप अपनी आवाज़ बुलन्द करें। आज मैं दुनिया-भर के नेताओं से कहना चाहूँगी कि वे अपनी नीतियों को शान्ति और सद्भावना पूर्ण इस प्रकार बनाएँ कि वे महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा कर सकें। वह कोई भी सौदा जो महिलाओं के अधिकारों के ख़िलाफ़ है, स्वीकार्य नहीं है।
हम सभी सरकारों से इस सुनिश्चितता की माँग करते हैं कि संसार के हर बच्चे को मुफ़्त तथा ज़रूरी शिक्षा उपलब्ध हो तथा आतंकवाद व हिंसा के विरुद्ध लड़ा जाए ताकि बच्चों को क्रूरता व क्षति से बचाया जा सके। हमारा सभी प्रगतिशील देशों से आग्रह है कि वे प्रगतिवान संसार में बच्चियों के लिए शिक्षा के अवसरों का विस्तारण करे। हमारा सभी वर्गों से अनुरोध है कि वे सहनशील बनें ताकि जाति, रंग, धर्म आदि भेदों को समाप्त किया जा सके। मैं अपनी संसार-भर की बहनों से कहूँगी कि वे बहादुर बनें, अपने भीतर शक्ति का संचयन करें तथा अपनी पूर्ण क्षमताओं को पहचानें।
प्रिय भाइयो और बहनो, हमें बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए स्कूल व शिक्षा चाहिए। हम अपनी यात्रा शान्ति तथा शिक्षा के गन्तव्यों तक जारी रखेंगे। हमें कोई रोक नहीं सकता। हम अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाएँगे और अपने विचारों में बदलाव लाएँगे। हम अपने शब्दों की शक्ति में विश्वास रखते हैं। हमारे शब्द पूरे संसार को बदल सकते हैं क्योंकि हम सब एक हैं, शिक्षा के लिए।
प्यारे भाइयो और बहनो, हमें उन लाखों लोगों को जो ग़रीबी, अन्याय तथा अज्ञानता से ग्रसित हैं, नहीं भूलना है। हमें उन लाखों बच्चों को भी नहीं भूलना है जो स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। हमें अपने उन भाई-बहनों को भी नहीं भूलना जो एक सुनहरे, शान्त भविष्य की बाट जोह रहे हैं।
अतः आइए तथा अज्ञानता, ग़रीबी तथा आतंकवाद के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखें। आइए, अपनी किताबें तथा क़लम उठा लें जो हमारे सबसे ताक़तवर हथियार हैं। एक बच्चा, एक अध्यापक, एक किताब और एक क़लम संसार को बदल सकते हैं। इसका एकमात्र उपाय है—शिक्षा। सबसे पहले—शिक्षा। धन्यवाद!
भगत सिंह का लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ'