एक वक्त था, रंजन घड़ी में रात के नौ बजते-बजते नींद से व्याकुल हो उठता था। दिन भर की धमाचौकड़ी के बाद थकान से व्यथित होकर सो जाता था निश्चिंत, पर आज नींद उसकी आँखों से गायब है। उसकी पलकें ज़रा भी बोझिल नहीं हैं। तमाम असफल प्रयत्नों के बावजूद बदलती करवटों के अलावा उसे कुछ भी हासिल नहीं हो पा रहा था।

घर से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर, हॉस्टल में आज उसका पहला दिन गुज़रा था। किसी तरह बिताए हुए इस कठिन दिवस के बाद रात्रि का आसानी से कट पाना उसे असम्भव सा प्रतीत हो रहा था।

बचपन से ही अपने परिवार का प्यारा और माँ की आँखों का तारा सा रंजन, आज अपनी आँखों में अपनों के चेहरे तैरते हुए देख पाने को विवश था।

अब समझ में आ रहा है क्यूँ सब मुझे मुफ़्त की सलाह और हिदायतें देते रहते थे क्योंकि जो मैं नहीं देख सकता था वो सबको दिखाई दे रहा था- ‘जाओ, क्या छः महीने के बच्चे की तरह माँ के पल्लू से बंधे रहते हो!’, चाची अक्सर हँसते हुए यह बात बोल जाती थीं।

माँ का प्रेम भी इतना प्रगाढ़ कि निःसंतान रहने का दंश लगभग दस वर्षों तक झेलते रहने और कई व्रत, उपवास, कथा, पूजा और तप के बाद मिले रंजन को वह साक्षात भगवान का प्रसाद ही मानती थीं।

रंजन कोई आदर्श युवक तो नहीं था पर माँ बेटे के प्रेम के रिश्ते से कहीं ऊपर था यह प्रेम। रंजन माँ के पास ही सोता, कक्षा बारह तक माँ के हाथों से ही निवाला खाने वाला रंजन उनसे दूर होकर मछली की भाँति तड़प रहा था।

पिताजी के लाख डाँटने के बावजूद माँ का रंजन को गुड्डा बनाये रखने का सिलसिला तब थमा जब बारहवीं के रिजल्ट के बाद इंजिनीरिंग की पढ़ाई के लिए उसे घर से इतनी दूर जाना पड़ा।

अब ऐसी परिस्थिति में होम सिकनेस के भाव का चरम पर होना लाज़मी था।

ट्रेन में बैठने के बाद भी वह यही सोचता रहा- ‘वापस चले जाना ही ठीक है, पता नहीं मैं यह पीड़ा और कितनी देर सह पाऊँगा, जो मुझे इस वक़्त हो रही है।’

ख़ैर जैसे-तैसे मन को समझाते बुझाते, माँ-बाप का सपना न टूटे इसकी परवाह करते हुए वह हॉस्टल पहुँच चुका था। यहाँ उसे सब कुछ अजीब लग रहा था। सब कुछ अपरिचित सा था- लोग, सड़कें, दीवारें, सब कुछ।

इतने बच्चों के बीच रहते हुए भी उसे कैंपस में वीरान खण्डहर नज़र आता था, और वहाँ के लोग दूसरे ही लोक वासी मालूम पड़ रहे थे उसे।

कमरे में प्रवेश करने के बाद उसके रूममेट पल्लव ने उससे परिचय करना चाहा। वह एक हरफनमौला और बिंदास जीने वाला लड़का लग रहा था। रंजन ने बड़े संक्षिप्त रूप में अपना परिचय देते हुए अपना मुँह फेर लिया। उसे हर किसी से बात करना पसंद नहीं था और ऐसे समय में तो बिल्कुल नहीं जब वो अपने शहर, अपनी गलियों की यादों में खोया था।

वह सिर्फ़ यही अपनी चोट की भरपाई मान रहा था, जो उसे घर से दूर आकर लगी थी। उसे कोई डिस्टर्बेंस नहीं चाहिए था। वह निरन्तर, उन बातों में खोया रहना चाहता था जो उसके घर की याद दिलाती थी। पल्लव उसके इस स्वभाव से चिढ़ने लगा था।

फिलहाल एक ही कमरे में रहना अब दो अलग अलग मिज़ाज के लोगों की मजबूरी थी। पल्लव के दोस्त अक्सर कमरे में आकर हुल्लड़बाजी करते, यह सब रंजन को बिल्कुल भी नहीं भाता था।

वास्तव में अब रंजन को अपनी पसंद नापसन्द का पता धीरे-धीरे लग रहा था। अब तक उसने वात्सल्य की छाँव में बड़े मजे से अपने बचपन के दिन व्यतीत किये थे, पर अब बारी थी प्रैक्टिकल होकर एक डिवोटेड स्टूडेंट के रूप में ग्रो करने का, जिसमें वह खुद को असमर्थ पा रहा था। उसके दिमाग में जैसे यादों की फ़िल्म चल रही थी, जो उसके जीवन के इस पड़ाव पर उसके विकास में बाधक बन रही थी।

वह हर हफ्ते बस घर वापसी के दिन गिनता रहता। वापसी के समय ट्रेन में बैठ जाने के बाद ही उसके दिल को तस्सली मिलती, “ये सब क्या हो रहा है मेरे साथ, मैं कहीं एडजस्ट नहीं कर पाता। मेरी माँ मुझे इतने दिनों तक कैसे झेलती रही, निःसंदेह कमी मुझमें ही है”, वह खुद को कोसता जा रहा था- ‘मुझे जीवन के हर मोड़ पर अनुकूल वातावरण मिले इसके लिए माँ ने कितने त्याग किये होंगे और मेरे हसाब से जीती रहीं।’

माँ के विषय में उसने जितने कोट्स पढ़ रखे थे वह आज उसे सत्यवत मालूम पड़ रहे थे। पहले तो वे सिर्फ काग़ज़ पर लिखे हुए चंद शब्द ही प्रतीत होते थे।

‘मन में उठती तीव्र भावनाओं का ज्वार और वियोग इंसान को क्या से क्या बना देता है, वह परिस्थितियों का दास बनकर रह जाता है’, सोचते सोचते उसकी आँखें भर आती हैं।

हर हफ्ते घर पहुँच जाने की वजह से उसे घर पर सभी से डाँट पड़ती थी और सलाहों और चेतावनियों का दौर शुरू हो जाता था, “अरे तुम रोज़ ही भागकर आओगे तो पढ़ाई कब करोगे? एक विद्यार्थी को सिर्फ अपनी पढ़ाई से मतलब होना चाहिए। सब तुम्हारी माँ की किया धरा है, इन्होंने ही तुम्हें बिगाड़ रखा है”, पिताजी गुस्से से आग बबूला होकर कहते हैं।

ये हर बार का किस्सा बन चुका था। इसी वजह से रंजन ने मन बना लिया था कि इस हफ्ते घर नहीं जाएगा, पर शनिवार आते आते उसके संकल्पों की हवाइयाँ उड़ चुकी थीं। उसका सब्र टूट चुका था, मन सारी सीमाओं को तोड़ते हुए घर की तरफ भाग चला और उसने अचानक फैसला किया कि तत्काल की टिकट लेकर वह घर जाएगा।

उसकी होमसिकनेस के बारे में अब हॉस्टल में सबको पता था, सब उसका मजाक भी बनाते पर अब उसे किसी की परवाह नहीं थी।

“क्या यार तूने तो इस बार बड़ी बड़ी बातें की थी कि अब एक दो हफ्ते घर नहीं जाएगा, अब क्या हो गया, तुम्हारी तो हवा ही निकल गयी”, पल्लव तंज़ कसते हुए कहता है, “यहाँ इतनी लड़कियाँ भी पढ़ती हैं, ये बेवक़ूफ़ किसी से बात तक नहीं करता और हमेशा घर भागने की ही सोचता है, और एक हम हैं, एडमिशन के बार एक बार भी घर नहीं गए। ये तो अपने मन का है।” वह मन ही मन सोचता है और गर्व उसके चेहरे से साफ झलकता है।

रंजन, “मुझे कुछ नहीं पता, मैं सब कुछ भूल चुका हूँ अब जो होगा देखा जाएगा, पर मुझे घर जाना ही है”, कहते हुए वह स्टेशन के लिए निकल पड़ा।

जैसे-जैसे घर नज़दीक आ रहा था, रंजन का दिल बैठा जा रहा था। घर पर किसी को अपने आने की सूचना भी नहीं दी है, पिताजी तो अब मुझे नहीं छोड़ेंगे और माँ भी खुद को ही दोषी समझेंगी।

खैर हिम्मत करके वह घर में दाखिल हुआ। सभी उसे अचानक देखकर अचंभित हो जाते हैं, “अरे तुम तो इस हफ्ते नहीं आने वाले थे न?”, माँ ने अपनी खुशी छिपाते हुए पूछा।

पर पिताजी के चेहरे के भाव से स्पष्ट था कि वो अब अपना कोप बरसाने ही वाले हैं, “इनके पास हिम्मत कहाँ है, और बबुआ बनाकर रखो इन्हें। मैं जानता हूँ कि ये सारा पैसा डूब जाएगा जो इसकी पढ़ाई के लिए हमने एजुकेशनल लोनिंग करा रखी है। ये कर करा जाता तो पैसे बर्बाद तो नहीं होते पर इसे क्या, जब खुद कमाएगा तो पैसे की कीमत समझ में आएगी”, पिताजी तिलमिलाते हुए बोले।

रंजन ने खुद को रास्ते भर मानसिक रूप से तैयार कर रखा था डाँट सुनने के लिये, इसलिए उसे ज़्यादा तकलीफ नहीं हुई। उसने सभी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकालना ही बेहतर समझा।

माँ माहौल को गंभीर होता देख बात बदलते हुए कहती हैं, “बेटा इतनी दूर से आया है और आप आते ही इस पर बरस पड़े।”, माँ के शहद में घुले शब्द रंजन के कानों को असीम शांति दे रहे थे, तभी माँ को एक निगाह भर के देखने के बाद रंजन को महसूस हुआ कि माँ कुछ कमज़ोर सी लग रही हैं।

“माँ आप कितनी दुबली हो गयी हैं, खाती पीती नहीं क्या, धीरे-धीरे आपका स्वास्थ्य घटता ही जा रहा है”, रंजन अपलक होकर माँ की तरफ़ निहारते हुए कहता है, “मैं तो कहता हूँ कि ये सब छोड़ के आपके पास रहूंगा तो आपका ध्यान भी दे पाऊँगा, वैसे भी वहाँ मुझे आप सब की बहुत याद आती है। इस तरह मैं कैसे पढ़ सकूंगा, मैं यहीं रहकर बी.एस. सी कर लूंगा फिर आगे की देखी जाएगी। आप पिताजी से बात करिए ना!”, रंजन माँ को फुसलाने की कोशिश करता है।

पिताजी उधर कान लगाए माँ बेटे का वार्तालाप सुन रहे थे, “बड़े बेवकूफ हो, बी.एस. सी कर के क्या करोगे, आगे बहुत पापड़ बेलने पड़ेंगे नौकरी के लिए, खैर जो करना है करो, इतना मनबढ़ तो तुम्हें तुम्हारी माँ ने बनाया है। पहले ही पता होता कि तुम्हारा ये हाल होने वाला है तो तुम्हे क्यों भेजता वहाँ? मैं सोचता था कि एक बार चले जाआगे तो एड्जस्ट कर लोगे, पर तुम हो कि!” पिताजी ने आँखे तरेरते हुए कहा।

सभी लोग भोजन कर चुके थे, अब नींद से सब व्याकुल थे पर मां रसोई की तरफ बढ़ती हैं, तो रंजन ने टोकते हुए कहा, “अरे माँ मुझे भूख बिल्कुल नहीं है बस पानी पीऊँगा।”

माँ रंजन के कान ऐंठते हुए, “ये तुम्हारा होस्टल नहीं है कि तुम जो चाहे खा के सो जाओ।”

माँ खाना बनाकर, रंजन के सामने परोसती हैं। रंजन की आँखें डबडबा आती हैं, “सच माँ जैसा कोई नहीं हो सकता।”

“अब तो मुझे सच में लगता है तुम्हारी इस दशा की ज़िम्मेदार मैं ही हूँ”, माँ ने ज़रा खीझते हुए कहा, “तुम ऐसा क्यों सोचते हो, सब अच्छे लगेंगे जब तुम मन से सबको स्वीकार करोगे, तब सारी समस्याएं हल हो जाएंगी।”

रंजन ध्यान से माँ की बातें सुनता है, और उस पर अमल करने की कोशिश भी करता है।

खाते-पीते रात के बारह बज चुके थे, माँ की तबियत कुछ खराब लग रही थी।

अगला दिन बहुत व्यस्त बीता। पिताजी से मिलने वालों का मज़मा रविवार को लग जाता था, “माँ आप तो चाय नाश्ता बनाते बनाते ही परेशान हो जाती हैं, कोई मदद करने वाला भी नहीं है।”

माँ ने अब अपना ख्याल रखने का आश्वासन दिया रंजन को।

अगले दिन भोर के 4 बजे रंजन की ट्रेन थी। माँ तीन बजे उठकर ही रंजन के लिए पूरियां बना रही थीं कि अचानक कुछ गिरने की आवाज़ सुनते ही रंजन रसोई की तरफ भागा।

वहाँ देखा तो माँ फर्श पर पड़ी तड़प रहीं थीं। उसने माँ को कई आवाज़ें दी। यह सुनकर पिताजी भी झटपट रसोई में आ गए। दोनों मिलकर माँ के हाथ-पाँव सहलाने लगे, पर शायद काफी देर हो चुकी थी।

ये एक पैरालिसिस अटैक था जिसमें रंजन की माँ के बाएँ अंगों ने काम करना बंद कर दिया।

रंजन ने हॉस्पिटल में रहकर उनकी सेवा की और घर आने के बाद पिताजी से निवेदन किया कि वे अब उसे कभी हॉस्टल न भेजें।

उसने यहीं रहकर बी.एस.सी करते हुए माँ की देखभाल करने का भी ज़िम्मा लिया।

अब पिताजी को भी महसूस हो रहा था जो होता है अच्छे के लिए। अब इस झंझावात भरी घड़ी में रंजन ही उन दोनों का सहारा था।

अनुपमा मिश्रा
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