हमारे पुरखों ने बीने हैं
तुम्हारे गंदे ग़लीज़ से एक-एक दाने
तुम्हारे लिए
बनाया है तुम्हारे महलों को ख़ूबसूरत
अपने बहते हुए लहू से
जिसमें तुम करते रहे
अपने दुराचारी नाद नर्तन का अय्याशी दुःसाहस
तुमने यह तनिक भी नहीं सोचा
वो बदल जाएगा समय के साथ
एक दिन

तुम्हारे हाथों बोया गया हिंसक बीज
पौध बनकर मुरझाया नहीं है अभी भी
वह लहलहा उठता है अपनी दुर्गंध के साथ
जब तुम उस पर अपनी आतताई नज़र रखते हो
मन मलीन कर देता है वह
जिसे खुरचकर निकाला नहीं जा सकता
कभी भी

जब-जबमाँगा जाता है
हमसे हमारे होने का प्रमाण
तब-तब मुझे तुम्हारे धूर्तपन का इतिहास याद आता है कि
हमारे पुरखे जो लिखे, उसे जला दिया तुमने
हमारे पुरखे जो बनाए, उसे मिटा दिया तुमने
काट लिया अँगूठा अपना जस फैलाने के लिए
बावजूद इसके
हमारी स्मृतियों से ज़्यादा सत्य नहीं है तुम्हारा इतिहास
हमारी कास्तकारी और मेहराव से ज़्यादा प्रामाणिक नहीं हैं तुम्हारी कलाएँ
नूर मियाँ के सुरमे से ज़्यादा पुख़्ता नहीं हो सकता तुम्हारा ख़ूनी दस्तावेज़

इसलिए मैं कहता हूँ
तुमने जब-जब माँगा है
हमसे हमारे होने का प्रमाण
हमनें तब-तब तुम्हारे मुँह को झौंसा हुआ पाया है
भले ही तुमने लिख लिया हो अपने इतिहास में
चंदन का लेप लगा हुआ हमारे चेहरे पर
बावजूद इसके तुम नहीं बच सकते अपने धूर्त इतिहास और मक्कारी से
वो साबित कर देगा तुम्हारे दोगले चरित्र का प्रमाण
जिसे तुम हमसे माँग रहे हो…

सुमित चौधरी
शोधार्थी-भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।