‘Paritoshik’, a poem by Rahul Boyal
जागृति नींद का पारितोषिक है
नींद दिनभर के श्रम का
श्रम हमारे स्वप्नों का
और स्वप्न इस जीवन का।
जीवन भी एक पारितोषिक है
जिसे कमाना पड़ता है
ठीक उसी तरह
जैसे एक मज़दूर दिहाड़ी कमाता है
एक किसान फ़सल उगाता है।
एक मज़दूर इमारतें बनाता नहीं है,
अपनी पीठ पर ढोता है
इसलिए वह जीवन के वज़न को रोता है
और रोज़ मरे हुए जिस्म में
नयी आत्मा पिरोता है।
एक किसान केवल बीज रोपता नहीं है
धरती के सीने में अपना पसीना बोता है
इसलिए वह बेहतर जानता है
जीवन का यथार्थ कड़वा है
और दु:ख जन्म का जुड़वां है।
फ़सल बारिश का पारितोषिक है
बारिश मज़दूर के पसीने का
पसीना हमारी दौड़-धूप का
और धूप आत्मा की गरमाहट का।
गरमाहट भी एक पारितोषिक है
जिसे बचाना पड़ता है
ठीक उसी तरह
जैसे नामवर ख़ुद को अपयश से बचाता है
प्रेमी स्वयं को अप-स्पर्श से बचाता है।
स्पर्श संवेदना का पारितोषिक है
संवेदना निर्मल चेतना का
चेतना हमारे स्वप्नों का
और स्वप्न इस जीवन का।
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