Book Excerpt: ‘Pather Panchali’ – Bibhutibhushan Bandopadhyay
थोड़े दिन बाद।
बिटिया सन्ध्या के बाद सो गई थी। घर मे फूफी नहीं थी। लगभग दो महीने हुए माँ के साथ कुछ खटपट हो जाने के कारण वह गुस्से में आकर किसी दूर के गाँव के अपने एक रिश्तेदार के यहाँ जम गई थी। माँ की तबियत भी कुछ दिनों से अच्छी नहीं थी, फिर उसको देखने-भालनेवाला कोई नहीं था। हाल ही में माँ सौर में गई थी, इसलिए यह भी कोई नहीं देखता कि बिटिया कब खाती है, कब सोती है।
लेटे-लेटे बिटिया को जब तक नींद नहीं आई तब तक वह फूफी के लिए रोती रही। इस प्रकार उसका रोना नित्यकर्म हो गया था। जब रात काफी हो गई, तो वह कुछ लोगों की बातचीत सुनकर जग पड़ी। कुड़नी की माँ दाई रसोई घर के दालान में खड़ी होकर बात कर रही थी, पड़ोस के नेड़ा की दादी और न जाने कौन-कौन मौजूद थीं, ऐसा मालूम पड़ा कि सभी व्यस्त और परेशान हैं। वह कुछ देर जगती रही, फिर सो गई।
बांस की कोठी में हवा लगने के कारण सायं-सायं आवाज़ हो रही थी। सौर में बत्ती जल रही थी और न जाने कौन लोग बात कर रहे थे। आँगन में चाँदनी छिटक रही थी। वह थोड़ी देर बाद ठंडी हवा में सो गई। फिर थोड़ी देर बाद एक अस्पष्ट आवाज़ और शोर-गुल सुनकर उसकी नींद टूट गई। बिटिया का पिता अपनी कोठरी से निकलकर सौर की तरफ लपका और परेशान होकर बोला : ‘चाचीजी, क्या हालत है? क्या हुआ?’
सौर के अन्दर से अजीब रुंधी हुई आवाज़ आ रही थी। यह माँ की आवाज़ थी। अंधेरे में वह अधसोई हालत में कुछ न समझ पाकर थोड़ी देर बैठी रही। उसे कुछ डर-सा लग रहा था। माँ वैसा क्यों कर रही है? उसे क्या हुआ?
वह और भी कुछ देर तक बैठी रही, पर जब कुछ समझ में नहीं आया, तो वह लेट गई और थोड़ी ही देर में सो गई। पता नहीं कितनी देर बाद कहीं पर बिल्ली के बच्चों की म्याऊँ-म्याऊँ से उसकी नींद उचट गई। उसे याद आई कि उसने शाम के समय बिल्ली के बच्चों को फूफी की कोठरी के आंगनवाले टूटे हुए चूल्हे के अन्दर छिपा दिया था। नन्हे-से नरम-नरम छौने थे। अभी आँख नहीं खुली थी। सोचा कि हाय पड़ोस के बिल्ले ने आकर, बच्चों को शायद चट कर डाला।
उसी उनींदी हालत में वह फौरन उठी और उसने जाकर फूफी के चूल्हे में टटोला, तो बच्चों को निश्चिन्त सोते हुए पाया। बिल्ले का कहीं पता भी नहीं था। वह अवाक् होकर लेट गई और थोड़ी देर में सो गई।
उसकी नींद फिर उचट गई क्योंकि उसे छौनों की म्याऊँ-म्याऊँ सुनाई पड़ी। अगले दिन सवेरे वह जगकर आँख मल ही रही थी कि कुड़ुनी की माँ दाई बोली : ‘कल रात को तुम्हारे एक भाई हुआ है, उसे नहीं देखोगी?…अजीब लड़की है कि कल रात को इतना हो-हल्ला हुआ, इतने कांड हो गए, भला तू कहाँ थी? जो कांड हुआ, उसके लिए तो कालपुर के पीर की दरगाह में शीरनी चढ़ानी पड़ेगी। कल रात को उन्होंने साफ बचा लिया।’
बिटिया एक छलांग में सौर के दरवाज़े पर पहुँच झांका-झूँकी करने लगी। उसकी माँ सौर में खजूर के पत्तों की टट्टी से लगकर सो रही थी। एक सुन्दर-सा बहुत ही नन्हा, कांच की बड़ी गुड़िया से कुछ बड़ा जीव कंथड़ी के अन्दर लेटा हुआ था, वह भी सो रहा था। कोठरी में आग सुलग रही थी। उसके गन्दे धुएं में अच्छी तरह दिखाई नहीं पड़ रहा था। उसे खड़े हुए अभी कुछ ही देर हुई थी कि उसने देखा कि वह जीव जो आँख खोले टुकुर-टुकुर देख रहा था, अपने अविश्वसनीय रूप से नन्हे हाथों को हिलाकर बहुत धीरे से रो पड़ा।
अब बिटिया को मालूम हुआ कि रात को जिसे बिल्ली के बच्चों की म्याऊँ-म्याऊँ समझ रही थी, वह असल में क्या था। हू-ब-हू छौनों की आवाज़ थी, दूर से सुनने पर कुछ फर्क नहीं मालूम पड़ता। अकस्मात् बिटिया का मन अपने नन्हे भाई के लिए दुख, ममता, तथा सहानुभूति से पसीज उठा। नेड़ा की दादी और कुडुनी की माँ दाई के मना करने के कारण इच्छा होते हुए भी वह सौर में दाखिल न हो सकी।
जब माँ सौर से निकली, तो भैया के छोटे-से पालने को झुलाते-झुलाते बिटिया न जाने कितनी तुकबन्दियाँ और गीत सुनाती। साथ ही कितनी सन्ध्याओं की बात तथा फूफी की बात याद आ जाने के कारण आँखों में आँसू उमड़ आते थे। फूफी इस प्रकार के कितने गीत सुनाया करती थी। भैया को देखने के लिए मुहल्ले के लोग टूट पड़ते हैं। सब लोग देखकर कहते हैं : ‘बच्चा हो तो ऐसा हो। कितना सुन्दर है, कैसे बाल हैं, क्या रंग है?’ जब वे लौटते हैं, तो आपस में कहते हुए जाते हैं : ‘दीदी, कितनी मोहनी हँसी है।’
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