गिद्ध
आज अचानक मेरे शहर में
दिखायी देने लगे झुण्ड के झुण्ड गिद्धों के
देखते ही देखते
शहर के हृदय पर एक बडे़ मैदान में
होने लगा एक विशाल सभा का आयोजन
सभा काे हाेते देख
दौड़ पड़ीं मछलियाँ भी सभा की ओर
निकलकर शहरों से ही नहीं, गाँवों से भी
मंचासीन मुखिया डाल रहा था दाना मछलियों को
ताकि फँस सकें वे उसके जाल में
वह दिला रहा था विश्वास, अटूट विश्वास के साथ
कि उन्हें नहीं होगी काेई भी हानि उनसे
अब वह करेंगे उनकी हिफ़ाज़त
वह करेंगे व्यवस्था, उनके खाने की
उनके पीने की, उनके रहने की
इतना ही नहीं, उनके आने-जाने की
मछलियाँ ख़ुश थीं कि अब वह रह सकेंगी सुरक्षित
अब वह हाे जाएँगी मुक्त जीवन की हर समस्या से
और गिद्ध भी थे ख़ुश यह साेचकर
कि फँस गई हैं मछलियाँ, उनके जाल में।
फ़ुटपाथ
फ़ुटपाथ नहीं है सिर्फ़
जगह लोगों के चलने की
बल्कि यथार्थ है
आलीशान दुनिया से परे
वास्तविक दुनिया का
फ़ुटपाथ सहारा है
उन अनाथ व असहायों का
जाे रहते हैं अपरिचित ताउम्र
उस स्थान से
जाे पहली शर्त है, किसी व्यक्ति की
उस देश का नागरिक हाेने की
फ़ुटपाथ क़ब्र है उन उम्मीदों की
जो फ़ुटपाथ पर ही खोलती हैं अपनी आँखें
और फ़ुटपाथ पर ही दौड़ते हुए अनवरत
अन्ततः उसी पर तोड़ देती हैं अपना दम
फ़ुटपाथ बुझाता है पेट की वह आग
उन असहाय हाथों की
जाे खटकाते हैं कटाेरा
सामने हर राहगीर के
फ़ुटपाथ बिस्तर है उन लोगों का
जो जान हथेली पर रखकर
सोते हैं यह साेचकर
कि कल का सूरज जगाने आया
तो वह देंगे उसे धन्यवाद
देने के लिए ज़िन्दगी का
एक और दिन
देर रात होटल व मदिरालयों से निकलकर
मदमस्त हाथियों की तरह
फ़ुटपाथ रौंदने वालो
यह ख़याल रखो
कि फ़ुटपाथ, फ़ुटपाथ नहीं
एक पूरी बस्ती है।
उम्मीदें
अनायास दिख ही जाती हैं
आलीशान महलों काे ठेंगा दिखातीं
नीले आकाश काे लादे
सड़क के किनारे खड़ी बैलगाड़ियाँ
और उनके पास घूमता नंग-धड़ंग बचपन
शहर दर शहर
इतना ही नहीं, खींच लेता है अपनी ओर
चिन्ताकुल तवा और मुँह बाय पड़ी पतीली की ओर
हाथ फैलाए चमचे को देखता उदास चूल्हा
आसमाँ से अनवरत
आफ़त बन बरसता जीवन
तथा सामने पत्थर हाेती
टूटी चारपाई पर बैठीं बूढ़ी आँखें
निष्प्राण हाेते वह फ़ौलादी हाथ
जिनकी सामर्थ्य के आगे
हाे जाती है नतमस्तक
वक्रता और कठोरता की पराकाष्ठा
दूर खिलखिलाता बचपन
देखता उस दौड़ते जीवन काे
जाे उसके लिए आफ़त नहीं
ख़ुशी है काग़ज़ी नाव की
आकाश में फैलता अन्धकार
कर रहा है स्याह
उन उम्मीदाें काे
जिन्हें पराेसना है थाली में
शाम हाेने पर!
बालमणि अम्मा की कविता 'माँ भी कुछ नहीं जानती'