एकत्व
नैया
डोलती है
सम्भलती है
डूबती है
मगर नदी!
नदी, नहीं ठहरती
ना किसी पाषाण के अवरोध से
ना किसी तटीय अर्चना से
ना चिताओं की आग से
ना अस्थियों के विसर्जन से..
बिलखती नहीं मीनों की मौत पर
चित्कारती नहीं प्रदूषित वसन पर
रोती नहीं विषाक्त रसायन पर
दुत्कारती नहीं जीवों को कछार पर
मिल जाती है सागर से
क्योंकि डेल्टा-निर्माण आवश्यक है
आवश्यक है
नदी का सागर से मिलना
दर्प खोना
मीठापन त्यागना
लवणत्व ग्रहण करना
एकाकार हो जाना
एकस्वाद हो जाना
ठीक वैसे ही जैसे
जीवात्मा परमात्मा से
और त्याग देना
नश्वरता
जैसे नदी त्यागती है
डोलती नैया
शव मीनों का
विषाक्त रसायन
चिताओं की अग्नि
अस्थियों का भार…
स्वपन-विहगा
अरुणिमा स्वप्न द्वार पखार,
कलरव से हो नभ गुंजार,
हृदय क्षितिज पर नव विहगा,
उड़ जा चपला चटका।
उर में जितने स्वप्न-सीप
उतने पलकों में रजत-दीप
घन मिले तो उसको भेद आ
अब रहा तुझसे अभेद्य क्या?
पिघल जाएँ सारी दिशाएँ
खोल अलके देख शिखाएँ
अवगुण्ठन त्याग कलियों का
तू स्वयं सिहरन हवाओं का
सुन री बंधनों की संगिनी
तू ही तो नभ की प्रणयिनी
श्वासों में मलयानिल भर के
नभ भेद दो परिमल शर से।