Poems: Pranjali Awasthi 

प्रेम के नियम

विचारों की शृंखला को पकड़कर झूल गया
एक ख़याल था
जो मेरी देह से झड़ रहे नमक में
मुझे घोलने की कोशिश में लगा था
कुछ फलांग की दूरी पर रखे हुए
अनगिनत प्रेमपत्रों की ऐसी संख्या और क्रम था
जो मैं जानने को उतावली ज़रूर थी
पर उन तितलियों के
छूते ही उड़ जाने का डर भी था
मैं सिमट जाना चाहती थी
अपनी देह को दोहराकर प्रेम की खोह में
प्रत्येक घर्षण के विरुद्ध
मैंने स्पर्श को
नमक के खारेपन से ज़्यादा विषैला पाया
इस अनुभव के लिए साधना की
क्योंकि जानना था
प्रेम अनादि होता है पर कैसे?
और इसके कुछ नियम नहीं थे…

आत्मनुसन्धान

1

बात करना या
कुछ भी बात करना
कई बार बहाना खोजने जैसा होता है

आन्तरिक तुष्टि के लिए
अनुसंधान की तरह
इस तरह की खोज करते रहना चाहिए

कई बार अनावश्यक होना
आपके लिए
अति आवश्यक होता है

2

ख़ामोश हो जाने का मतलब
कई बार भूरे रंग की चीख़ों में
ख़ुद को खो देना है
जिसका मक़सद
आत्मा और देह के बीच भर गयी धूल में से
उस शुद्ध पहचान को ढूँढ निकालना है
जिसमें
परिलक्षित छिन्न-भिन्न विकृतियों का भी
आलिंगन करने से गुरेज़ न हो…

आवाज़ें

जब आवाज़ें उठती हैं
शोर होता ही है
ऐसा शोर जो सुना जा सके
जिसमें कहीं न कहीं एक आवाज़
उस गूँगे की भी होती है
जो पैदाइशी चुप्पी से तंग आ चुका है

ऐसे ही शोर से निकलकर आते हैं
कुछ अगुवा
जो पालने में पड़े हुए पूतों की तरह होते हैं
जिनकी आकृति शोर के साथ बढ़ती जाती है

कुछ ख़ैरख़्वाह
जो आपको पता भी नहीं होते
कि कब आपके सलाहकार बन जाते हैं
जो आपके गले में अपनी आवाज़ें भरते हैं

कुछ कूटनीतिज्ञ जो
राजनीति की चक्की पर आवाज़ों को दलते हैं
ताकि पोषित हो सकें

आवाज़ की कोई हद, कोई ज़द नहीं होती
कोई आयु वर्ग और जाति नहीं होती
उम्र अवधि अनिश्चित सही

किन्तु इन आवाज़ों के पैर
वज़न में भारी,
इनके निशान पुख़्ता होते हैं
तभी भीड़ के सीने पर से दौड़ती हुईं
ये आपके ज़ेहन में कौंध जाती हैं

इन तमाम आवाज़ों की पुनरावृत्ति भी ज़रूर होती है
और इनमें एक आवाज़ तुम्हारी होती है

मौन

सदियों पहले
मौन एक व्यथा थी
जो कसैले शब्दों को चबाकर
दर्द गटक जाती थी

उसका गला नीला स्याह था
हर निवाला जहाँ से उतरते हुए बहुत क्षुब्ध होता था

मौन को हर तिरस्कार की आदत हो चुकी थी

फिर सदियाँ बीतीं

शब्दों का रंग स्याह हो चुका था
उनकी गर्दनें झुकी हुई थीं
पर फिर भी वो जानते थे कि
ज़ुबान से धुले और क़लम से उगे शब्दों को
रंग स्वतः मिल जाते हैं

पर मौन तब भी मौन ही था
उसके काँधे पर बोझ बढ़ता ही जाता था
पर वो चुप था,
जब भी वो
कवियों की गोष्ठी के समीप से गुज़रता
उसकी आँखें चमकने लगतीं

पर जहाँ भी देखता
हर चौराहे, मंच और जमघट में उपहास
उस का ही था
हर तरफ़ शोर था, आवाज़ें थीं
शब्दों की आवाजाही थी

पर स्थिति, मौन की वही थी
उपस्थित पर नगण्य

फिर से सदियाँ बीतीं

अब लोग मौन को पहचानने लगे थे
अलग-थलग सुकरात की दार्शनिक मुद्रा में खड़ा वो
जैसे फाँसी पर लटकने को हर समय तत्पर रहता था

लोग उसको सुनना चाहते थे पर अपने तरीक़े से
वो नहीं बोला
क्योंकि अब वो विद्रोह था, मौन नहीं

और वो तब तक गूँगा ही बना रहा
जब तक उसकी व्यथा को कोई
मौन सहमति नहीं मिली।

ज़िन्दा लोग

जीवन की नदी में
डूब गयी एक बस्ती पूरी
उम्र की नाव पर कुछ ख़ुद को बचा पाए…
क्यों
कितना
किस तरह
ये सवाल उनकी बाँहों पर
किसी जोंक की तरह चिपके चले आए

हवा की आवाज़ में इतना शोर था
कि पलटकर देखने की हिम्मत नहीं थी
नदी के पैरों के बोझ से
किनारे भी धँस चुके थे अपने अन्दर कहीं

उस बस्ती के डूबने से खिंचा सन्नाटा
चीख़-चीख़कर कह रहा था
कि कल फिर आवाज़ों की वापसी होगी
और कुछ लोग ज़िन्दा होंगे।

पानी

आसमान के नीले पैर
उसकी हथेली में अपना दर्द घोल रहे थे
वो चाहते थे कि
वाक़िफ़ हो जाए वो भौतिक परिवर्तनों से

ताकि परिवर्तन की देह से छूटा हुआ नमक
उसके ज़ेहन में ना घुलकर
हमेशा तलहटी पर ही रह जाए

आसमान ने उसके पेट में हाथों से गुदगुदी की
तब लहरों की उछाल से
मापी जा सकती थीं उसकी किलकारियाँ

नदी की गोद में ‘पानी’ मानो एक शिशु की तरह था…

जवारे

धरती के हाथों में
रेखाएँ हमेशा से नहीं थीं
वो हथेलियों को चूमकर आँखों से लगाती थी
वो मानती थी कि
आँखों में ईश्वर के गुप्तचर रहते हैं
जिनके आगे हथेली पर इच्छाएँ फैलाकर
उसने जवारे उगाए

उसके माथे पर उभर आए
कुछ रास्ते, कुछ पगडण्डियाँ
जिनसे होकर गुज़रते थे
छोटे-छोटे बचपन के पैर

जिनकी छाप उसके सीने पर होने से
वहाँ उतर आयी थी
कच्चे रास्तों से बहती मातृत्व की नदी

धरती बदल चुकी थी
पूर्ण स्त्री में

उसकी गर्म साँसों ने झुककर
रख दिया था चुम्बन
उन उग आये
जवारों के खिले-खिले शीतल कोमल गालों पर
मुस्कुराते हुए…

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Book by Pranjali Awasthi: