बचा मन
कतराती हूँ आईने का
सामना करने से सदा,
पता नहीं कब वो बदले
बेरंग चेहरे की वजह पूछ ले
ढाककर रखती हूँ पैरों को
साड़ी से, जिससे नज़र न आ
सकें ज़िन्दगी की फटी सच्चाइयाँ
हिचक उठती है अन्तस में देखकर
घुँघरू, क्योंकि बजती हूँ मैं अब
घुँघरुओं की ही तरह
रंग-बिरंगी लेस देखकर ललचाता
है मन दुपट्टे पर टाँक लेने को
रुक जाते हैं क़दम पाँच गज का
परदा सम्भालते हुए
गीत गुनगुनाने की हिम्मत ही कहाँ
बाक़ी रह जाती है देह में, जब
मसली जाती है स्त्री केवल
अभिमान को क़ायम रखने के लिए…
भार
सृष्टि का बोझ उठाने
को ईश्वर ने बनाए पुरुष,
पर कमज़ोर कंधों वाली
स्त्री ने वहन किया सारा भार!
प्रेम में स्त्री
प्रेम में पड़ी स्त्री
संसार के समस्त
रहस्यों को भीतर
सम्भालती रहती है
ईश्वर की पीठ पर
बैठकर तौलती
है नमक के ढेलों को।
प्रकृति
अपना दुःख बोलो
किसी पेड़ के कोटरों में
पल्लवित होंगे फल
अधीर होकर तुम्हारी
निराशा के प्रतिउत्तर में
कहो किसी चिड़िया
को मन की बात
वो छत पर मनन करती
चूमेगी आसमाँ फिर लौटेगी
साँझ तले बताने कि दुःख
बेड़ियाँ हैं तन और आत्मा की
कह दो धूप से परेशानी
वो फैलकर बैठेगी मुण्डेर पर
यकायक सिकोड़ लेगी रूप
बताएगी और समझाएगी कि
रोशन करो अन्तस को
अपनी तकलीफ़ बोलो फूलों
के कान में और वो लजाकर
लहराकर बताएँगे कि भौंरा
चूस लेता है रस हर पल
पर अडिग रहता है मज़बूत इंसान
ग़म ग़लत करो धरती के साथ
वो बताएगी कि सहने से अधिक
जटिल संसार में कुछ नहीं
हमारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर
हमारे पास ही होता है…
गुरुत्वाकर्षण
स्मृतियों में गुरुत्वाकर्षण होता है
क़दम ऊपर बढ़ते हैं, पर मन नीचे की ओर!
रविवार
सोचती है रसोई
में घण्टों खड़ी हुई
स्त्री कि गड़बड़
कहाँ होती है?
शुरुआत में आता
रहा रविवार, पर
अब क्यों उससे
मुलाक़ात नहीं होती!