Poetry: Veebha Parmar
फ़िक्र
मुझे लगता है कि मैं तुम्हारी
एक फ़िक्र हूँ
एक ज़िम्मेदारी!
जिसे तुम निभाते जा रहे हो
एक पिता की तरह!
कभी-कभी सोचती हूँ कि
इस फ़िक्र में मुझे धरती के जैसा अपार दुःख दिखता है
जिसे तुम कम करने की कोशिश करते हो!
और इस कोशिश में, मैं चाहकर भी तुमसे हमारे बिखरे प्रेम को लेकर बहस नहीं कर पाती हूँ
जानती हूँ कि फ़िक्र या ज़िम्मेदारियाँ बुरी नहीं होती
वो हमें सिखाती है समय का सदुपयोग करना!
लेकिन उस बिखरे प्रेम का क्या?
जो चाहता है
जो चाहता रहा अब तक
हमारा ठहराव!
मैं इस प्रेम के ठहराव में
तुम्हारे साथ अपने बचे-कुचे जीवन को बिता देना चाहती हूँ!
अब मैं तुम्हारी फ़िक्र नहीं
जीवनभर संगिनी बनकर रहना चाहती हूँ
भगदड़
ज़िंदगी में भगदड़ मची हुई है
ठीक है
लेकिन भाव में भगदड़
उफ़्फ
ये कैसी स्थिति चल रही है
जिसमें
मैं आँसुओं को आँखों में समेटे हुए फिर तो रही हूँ
मगर निकाल नहीं पा रही
मैंने बातों को भी अपने जिस्म के किसी कोने में दफ़्न कर रखा है
जिनको बोल देने भर से दुःख के कई पर्याय खुल जाएँगे
बस मैं अब
इन पर्यायों का घिसा पिटा सा
शब्द हूँ
शब्द जो सबके लिए समान है
पर मेरे लिए ख़ाली है
और इस ख़ालीपन से ख़ुद को भरने की कोशिश कर रही हूँ।
मिलना
जब भी हम लोग मिलते हैं
तब
हमारा मिलना
सिर्फ़ मिलना नहीं होता
मिलने की उस गहराई में जाना होता है
जिसमें मिलने की गहराई में
तुम
हवा बनकर
मुझमें यात्रा करने लगते हो।
यात्रा में
तुम ना जाने कितनी ही बार
मुझे बोसे से
कसैला कर देते हो!
और
मेरे कसैलेपन पर बेतहाशा
मुस्कुराते हो।
मुस्कुराकर तुम
मेरी रजस्वला से पूर्ण
कमर को देखते हो
जो
तुम्हारे लिए बिल्कुल
चाँदी के गुच्छे की तरह है
जिसे तुम
बार-बार अपने हाथों से
निहारते हो।
मेरी
देह की सरसराहट
देह का रिसाव
तुम्हें प्रिय है
बहुत प्रिय
और मेरे मुँह का
एकदम से रिक्त होना
तुम्हारे लिए उस समय
कौतुहल का विषय बन जाता है
पर सुनो
ये कौतुहल सिर्फ़ कौतुहल नहीं
प्रेम की गहराई है
अंतिम तत्व है
पुरातत्व है
इस पुरातत्व में
मैं तुम्हारी
नक्काशीदार बातों और
क़रीब लाने के हुनर की कायल हो जाती हूँ
मानों उस समय
तुम जानते हो
मेरा सम्पूर्ण भूगोल!
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