रक्तबीज
अगर जा बसूँ
बीहड़ों में,
तो क्या इस
नये रक्तबीज से
बच पाऊँगा?!
सुना है ताज है
इसके सिर पर
इसीलिए नाम दिया है—
कोरोना…।
इतिहास साक्षी है
कि जब जब
किसी
ताजदार के सामने
किसी भी
सन्त, फ़क़ीर, दरवेश
या ज्ञानी ने,
अपनी अस्मिता,
अपनी सोच,
अपने आत्मसम्मान को
अक्षुण्ण रखना चाहा,
तो उसे बसना पड़ा
बीहड़ों में, विजन वन में
पर्वतों में, गुफाओं में…।
या तपना पड़ा
बीच श्मशान की
चिताओं में।
तो क्या मैं भी
अलमस्त फ़क़ीर बनकर
इस मुकुटधारी रक्तबीज से
बच पाऊँगा??
सवाल लेकिन उससे पहले
उठा मन में…
क्या मैं कभी ऐसा
मस्तमौला बन पाऊँगा?!
हो सकता है
इस बार वैसा बनने की
कोशिश में बच भी पाऊँ।
क्योंकि छिन भी
सकते हैं
सिरों से ताज,
ख़त्म हुए हैं कई राज।
लेकिन फिर ऐसा भी हो
कभी कि
लोभ के, वासनाओं के ज्वार
उठें मन में
और
नया रक्तबीज फिर
जन्म ले।
लेकिन इस बार
किरीट नहीं
शिरस्त्राण पहन कर..।
श्यामा का बेटा
निश्चित नहीं हूँ मैं कि
क्या उम्र रही होगी उसकी
शायद नौ या दस
बस
आँखों में उसकी
पनियाले कंचे की-सी
चमक थी,
जैसे सौ सूरज
दहके हों,
होंठ गुलाबी,
जैसे
बसन्त के फूल
महके हों।
रंग इतना सफ़ेद
कि
मण्डी की रूई की ढेरी में
खो जाए
तो कोई
ढूँढ ना पाए।
पर उसकी मुस्कान में
एक उदासी की
स्याही थी।
या क्या मेरे दिमाग़ ने
ये बात तब
बनायी थी?
‘तुम्हारी तरह
इंजीनियर बनूँगा मैं…’
ये कहता है।
होशियार भी है,
मेहनती भी,
पर कौन जाने भाग्य में
क्या लिखा रहता है?!
श्यामा अक्सर
कहती थी।
बेटे के मुस्तक़बिल के
ख़्वाब आँखों में बुने
रहती थी।
पिछले शनिवार
मैंने उसे देखा
बीच सब्ज़ी बाज़ार।
करीब पैंतीस बरस बाद…
गुज़रा मेरे पास से
सर पे गोभी की टोकरी
लाद।
चेहरे के रंग में रेत
पड़ गयी थी,
होंठों पे सिगरेट का कालापन
आँखें अभी भी थीं पनियाली
मगर
गड्ढे में जैसे
गड़ गयी थीं।
लेकिन उसके चेहरे पर
बड़ी प्यारी मुस्कान…
खेल रही थी
बेबाक, बेफ़िक्र, बेसाख़्ता…
ज्यों छू लिया हो
परिन्दे ने आसमान।
मैने दौड़कर उसके कान्धे पे
रखा हाथ।
उसने कुछ पल देखा,
फिर चिल्ला पड़ा
हठात्…
“बड़के भैया!”
यही होता था उसका
सम्बोधन।
उसके चेहरे पर
तैर गया बचपन…
(मेरे चेहरे पर भी…)
“कैसे हो?”
मैं उसका नाम
गया था भूल…
“श्यामा के बेटे!”
मन ही मन
बुदबुदाया मैं
पूरी करने अपनी बात,
लिए लज्जा का शूल।
“बस भैया,
सब्ज़ी की टोकरी ट्रक से दुकान
तक लाता हूँ,
बेटी पे ख़र्च देता हूँ
जो भी थोड़ा बहुत
कमाता हूँ।
आज उसका रिज़ल्ट आया है
उसकी माँ ने अभी बताया है।
एम बी बी एस के दूसरे साल में
अव्वल आयी है,
वो ही सरमाया है हमारा
वो ही मेरी असली कमाई है।
देखो बड़के भैया!
जिस ट्रक का मालिक था मैं,
आज उसी से टोकरी उठाकर
दुकान तक लाता हूँ;
ईश्वर गवाह है
उस ट्रक से नेह कभी नहीं
लगाता हूँ।
बेच डाला था उसे,
बेटी की पढ़ाई के लिए
उसकी फ़ीस की
भरपायी के लिए।
लेकिन मेरी बिटिया पर
ऐसी हज़ारों चीज़ें
क़ुर्बान,
उसके सपनों में ही
बसती है हमारी जान।”
उसकी पनियाली आँखों में
था ख़ुशी का सैलाब,
मेरी आँखों में पानी।
लादकर टोकरी चल दिया
वो अभिमानी…
उसकी उन आँखों में
श्यामा का अधूरा ख़्वाब
पूरा होने में लगा था,
धुँधली से देखा मैंने,
कहीं दूर क्षितिज में
एक ख़ूबसूरत-सा
इन्द्रधनुष सजा था।
कौन था ये?
कोई पथ प्रणेता,
या विश्व विजेता…
या महज़
…श्यामा का बेटा?!
सालगिरह पर
सुबह से दर्पण में
देख रहा हूँ चेहरा…
झुर्रियाँ हँस रही हैं;
आँखों के नीचे पड़े गढ्ढे
चिल्लाते हैं।
(या बीती जवानी की नासमझी को
चिढ़ाते हैं)
ख़िज़ाब की कालिख
के नीचे दबी चाँदी
बाहर निकल कुछ कहने को
कसमसाती है।
आँखों की चमक में घुलती
ज़िंदगी की शाम की उदासी
कहकर मुस्कराती है:
“सालगिरह मुबारक!!”
अपनों की बधाई और
शुभकामनाओं को सुन
प्रसन्न होने का
प्रयास करता हूँ।
और सोचता हूँ कि
जब देह का ये घट
रीत जाएगा
और
जब साँसों का चक्र
बीत जाएगा;
जाने वो कार्तिक या
बैसाख होगा
जिस दिन ये सब
राख होगा;
तब क्या उस राख का
जन्मदिन होगा?
और उस राख से
गर फूटेगा कोई अंकुर
तो क्या उस दिन होगा
जन्मदिवस उस पेड़ का?
तो फिर…
वो मैं जो
‘मैं’ हूँ…
या मैं वो जो
‘वह’ हूँ
उसका जन्मदिन
कब होता है?
कौन बनाता है
उसके लिए केक,
मोमबत्ती कौन जलाता है?
कौन बताएगा
‘उसका’ जन्मदिन
आख़िर कौन मनाता है?!