पहली मुद्रा

अबूझ का दुहराव
सूझ पैदा नहीं करता
दुहराव उम्मीद नहीं
समझौता है
और समझौते में उम्मीद का टूटना तय।

दूसरी मुद्रा

जैसे बनींद रात के खटके में
कोई स्वप्न भूलते हुए
दस्तक दे रहा हो
और नींद कोसो दूर हो, आँखों से।

तीसरी मुद्रा

द र अ स ल
जब बिजली कड़कती हो
और बादल रह-रहकर गरजते हों
काली रात में
आकाश की तरह
धुंधली हो जाती है स्मृति।

चौथी मुद्रा

एक ही गीत सुनते-सुनते
बेसुरा लगने लगता है जीवन
एक-रस।

पाँचवीं मुद्रा

सफ़ेद फूल जो खिला हुआ है
फुनगी पर
उन्मादी है।

छठी मुद्रा

एक सहसा गिरा हुआ अनयन बूँद
बारिश की नहीं
आँखों की साज़िश लगती है।

सातवीं मुद्रा

किसी अज्ञात भय में भयातुर
गर्मी में ठिठुरता है बदन
उमस उसाँसो-सी बढ़ती चली जाती है।

आठवीं मुद्रा

अमूर्तन आलाप का
और गीत के मूर्त शब्द-भर
सिर्फ़ अबूझ शब्द लगते हैं
जिसके मानी खो गए हैं
शब्द-शब्द-शब्द
एक भरोसा
जहाँ छिप जाते हैं डर
शब्द साथ छोड़ने लगते हैं।

नौवीं मुद्रा

अकेलेपन के वैभव का यह वक़्त है
जहाँ सब मानसिक रोग के मरीज़ हैं
दूधिये प्रकाश में सभी नीले दिखते हैं
और अंधेरे में स्याह।

दसवीं मुद्रा

उन्मादी भीड़
पत्थर लिए रात में नहीं
दिन में शिकार को निकलती है
आधी रात तो योजनाएँ बनाने में बीत जाती है।

ग्यारहवीं मुद्रा

(कवि वरवर राव के लिए)

महामानव-सा एक
बेवक़्त आकर फ़तवेबाज़ी करता है
और कवि अपने मूत में बजबजाता हुआ
सदी की बीमारी से जूझता है

अपनी साहस-गाथा लिखता है

सत्ता बहरी और अंधी दोनों है
बस गूँगी नहीं है।

बारहवीं मुद्रा

डर जीवन का स्थाई भाव है
जहाँ कोमलता की नहीं है कोई जगह
आस्थावान व्यक्ति धीरे-धीरे अवचेतन में
बुदबुदाता है
ईश्वर तब मरता है
जब किसी झूठ को अपना सत्य मान लेता है
जनसंख्या का बहुमत।

तेरहवीं मुद्रा

नैराश्य की आवाज़
सन्नाटा बुनते शोर में है
जैसे बारिश की रात में
बूँदों का शोर।

चौदहवीं मुद्रा

उम्मीद एक चमक है
जैसे कैमरे का फ़्लैश हो।

पन्द्रहवीं मुद्रा

जनता अपनी भूख
और मध्यवर्गीय मौज में
पक्ष या विपक्ष दोनों से
उतनी ही दूरी पर है
जितनी नदी के दो किनारे।

सोलहवीं मुद्रा

एक आम आदमी को
कवि की चिंता नहीं
उसे समाज की चिंता नहीं है
उसे अपनी भूख की चिंता है।

सत्रहवीं मुद्रा

एक महिला जिसका पति
शराबी है
और दो वक़्त की रोटी से अधिक
उसे शाम की दारू की अधिक ज़रूरत है
दोपहर होते ही उसे पीटने लगता है
पीटने के बाद
साठ रुपये के लिए
घिघियाते हुए मनौव्वल भी करता है।

अठारहवीं मुद्रा

एक मज़दूर जो
राजधानी में हुई एक घण्टे की बारिश में
सड़क पर हुए जलजमाव में डूबकर मर जाता है
उसके बाप को प्रधानमंत्री से कोई लेना-देना नहीं है
न ही किसी कवि से
रोटी जो छीन गयी है उसके मुँह से
उस पर लिखी कविता सबसे अश्लील लगती है।

उन्नीसवीं मुद्रा

आज की रात सबसे भारी
और सबसे लम्बी है
रोज़-रोज़ ताना सुनते हुए
आत्महत्या को विचारता युवक
सुबह की नहीं
सुबह होते ही मरने की प्रतीक्षा कर रहा है।

आज की रात कोई कवि
कविता लिखने की प्रतीक्षा में
जगा हुआ है
मच्छर उसे कविता लिखने नहीं दे रहे
और सिगरेट की डिबिया ख़त्म होने को है।

आज की रात कोई प्रेमी
अपनी प्रेमिका की याद में
अधसोया
सिसकियाँ ले रहा है

कल सुबह वह अपनी प्रेमिका को मना लेगा

आज की रात
बस आज की रात ही बची है
इस रात की सुबह नहीं है।

बीसवीं मुद्रा

बारिश सोहर गा रही है
बादल कजरी सुना रहे हैं
यह गीतों का मौसम है
या कोई विपर्यय
जब सामूहिक मृत्यु हो रही है चारों ओर
मौसम ने उत्सव-गान शुरू किया है
क्या यह प्रकृति का रुदन गीत है?
जिसे कोई समझना नहीं चाहता।

इक्कीसवीं मुद्रा

तुम्हारी प्रतीक्षा अब नहीं रही
अच्छे दिन
तुम चले जाओ बैरन।

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कुमार मंगलम
कवि और शोधार्थी, इग्नू, दिल्ली में रहनवारी, बनारस से शिक्षा प्राप्त की। कला, दर्शन, इतिहास और संगीत में विशेष रुचि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और आलेख प्रकाशित।