‘Prashno Ka Dakshin’, a poem by Shilpi Diwaker
तुम्हारे आकर्षण का चुम्बक
दिशासूचक है
मेरे भीतर से उठते
सृजन सैलाब का।
चुम्बक का केन्द्र
मेरी उँगलियों में है।
उँगलियाँ उकेरती हैं
चित्र
जो बहते हैं
उत्तर की ओर।
प्रश्न सब दक्षिण में हैं।
तुम में भी है,
लगाव का लोहा।
मैं ख़ुद ब ख़ुद
खिंची चली जाती हूँ
तुम तक।
बिखर जाती हूँ,
तुम्हारे लहू के लोहे में।
मेरे प्रश्न और उत्तर
दौड़ते है तुम में।
तुम भी हो जाते हो चुम्बक,
दो ध्रुवों को सम्भालते हुए।
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© शिल्पी दिवाकर