मृदुता मुझसे मेरी
न छीन मानव
मैं मृदा ही रहना चाहती हूँ
सन्दर्भों में पिसती रहूँ
गलती रहूँ
मिटती रहूँ
आकृतियों में ढलती रहूँ
स्वरूप की विशिष्टता ही
मेरी पहचान।
चाक पर चढ़ना
विधान है नियति का
किन्तु तपकर
मैं कभी पाषाण होना
नहीं चाहती
पुनर्निर्माण की
सम्भावनाएँ शेष रख
मैं मृदा ही रहूँ!!

– प्रीति कर्ण

प्रीति कर्ण
कविताएँ नहीं लिखती कलात्मकता से जीवन में रचे बसे रंग उकेर लेती हूं भाव तूलिका से। कुछ प्रकृति के मोहपाश की अभिव्यंजनाएं।