‘Qasam’, a poem by Anurag Tiwari

क़समें बैठी रहती हैं
प्रेम के बग़ल में दुबककर

जब क़समें झूठी पड़ने लगती हैं
थक जाती हैं
तो कहाँ जाती होंगी क़समें

क़समें हवा में उड़कर आज़ाद हो जाती हैं
फिर किसी दूसरे प्रेम के बग़ल में दुबकने

क्यूँ खाई जाती हैं वही क़समें प्रेम में बार बार
जाया क्यूँ हो वक़्त क़सम संभालने में
जो किया जाए
वह क्यूँ न किया जाए बग़ैर क़सम
जो न भी किया जाए
तो क्यूँ किसी क़सम का डर हो

प्रेम को लगता है
लगती है नज़र क़समों की
मैं क़सम खाता हूँ
कि बग़ैर किसी क़सम के तुम्हें प्रेम करूँगा।

अनुराग तिवारी
अनुराग तिवारी ने ऐग्रिकल्चरल एंजिनीरिंग की पढ़ाई की, लगभग 11 साल विभिन्न संस्थाओं में काम किया और उसके बाद ख़ुद का व्यवसाय भोपाल में रहकर करते हैं। बीते 10 सालों में नृत्य, नाट्य, संगीत और विभिन्न कलाओं से दर्शक के तौर पर इनका गहरा रिश्ता बना और लेखन में इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति को पाया। अनुराग 'विहान' नाट्य समूह से जुड़े रहे हैं और उनके कई नाटकों के संगीत वृंद का हिस्सा रहे हैं। हाल ही में इनका पहला कविता संग्रह 'अभी जिया नहीं' बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।