‘Sathi Ke Naam’, a poem by Suraj Ranjan Taransh
सैंकड़ों एकड़ में
बिछी धान की हरी चादर
कितना सुकून देती है आँखों को,
सरिया के जंगलों में
एक अरसा बिताने के बाद
महसूस किया है न तुमने
सुनो साथी,
जब भी मैं देखता हूँ तुम्हें
जंग लगे लोहे के जंगलों में
सुकूँ मिलता है मेरी आँखों को
धान की चादर की तरह ही।
हँसी तुम्हारी लगती है
धान की चटकती बालियों-सी
और खिल उठता हूँ मैं हर दफ़ा
जब-जब तुम हँसती हो
खिलखिलाकर
मैं चाहता हूँ
तुम हँसती रहो मुसलसल
और चटकती रहे ये बालियाँ
क्योंकि,
ये बालियाँ जीवन देती हैं।