‘Shawl’, a poem by Vipul Barodiya
सर्दियों के सफ़र में जब,
बसों की खिड़कियों से
पेड़ों को पीछे की ओर
जाते हुए देखते
ठण्डी हवा से सुर्ख़ गाल
सुन्न पड़ जाया करते,
तब एक डाँट सुनने को मिलती
और घेर लेता उसके बाद
माँ का नर्म-सा एक शॉल
जिसमें ढँककर माँ मानो
मुझे छिपाए हो सारी दुनिया से
जिसमें जाकर मैं
और छोटा बच्चा बन जाता,
और भूल जाता
सफ़र की देरी
भूल जाता खाने की चीज़ें,
भाई से क्या लेना है मिलकर,
भूल जाता खिलौने जो घर पर पड़े थे,
भूल जाता घर वापस शाम तक पहुँचेंगे,
भूल जाता कितने किलोमीटर बचे हैं,
कितने सफ़ेद मील के पत्थर गिने हैं
वो शॉल सच में बहुत गर्म है
सारे लिहाफ़ों से ज़्यादा,
सारी दुनिया की महफ़ूज़ तिजोरियों
से ज़्यादा सुरक्षित,
जिसके अंदर कोई
ख़ौफ़, डर, परेशानी है ही नहीं
बस ममत्व है इतना कि
माँ की गोद को तकिया बनाकर
मैं जल्दी नींद में चला जाता हूँ
और भूल जाता झाँकना बाहर।
हवा बहुत सर्द है आज,
फिर से चेहरे को मेरे छूती हुई
सौंपती सिरहने, सुर्ख़ियाँ फिर वही
अलसाये बदन को कँपाती हुई
शॉल बहुत दूर है माँ का
पर उनका फ़ोन आया करता है
रोज़ सुबह शाम,
सर्दियों को थोड़ा कम करने।