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विकास शर्मा की कविताएँ
फिरौती
घनेरे पेड़ की
सबसे ऊँची डाल पर
बैठा था वो बाज़
पंजों में दबाए चिड़िया
घोंसले में बैठा था चिड़ा
अण्डों पर;
रखवाली करता।
चिड़िया थोड़ा फड़फड़ायी थी
कसमसायी थी,
फिर समझ गई थी
अपनी असमर्थता।
और दुबकी पड़ी रही
अक्षम, अशक्त, असहाय।
बाज़ ने उसे हौले-से
सिर्फ़ दबोचा था
न मारा था
न नोचा था।
वह कभी चिड़िया को
कभी घोंसले में बैठे
चिड़े को
घूर रहा था।
कुछ देर बाद
कुछ समझते हुए
कुछ सहमते, झिझकते हुए
चिड़ा अण्डों से उठा
और जा बैठा दूर।
बाज़ जो उसे रहा था घूर
चिड़िया को छोड़
उड़ा और
दो अण्डों में से
एक उठाकर
फिर उसी डाल पर लौटा।
लड़खड़ाती चिड़िया
उड़ी और लौटी चिड़े के पास
घोंसले में।
चिड़े ने चिड़िया को
देखा
और बाज़ ने
उन दोनों को।
पैनी करते अपनी चोंच
सोच रहा था वह-
फिर से होंगे अण्डे
इस घोंसले में
फिर लौटेगा वह
लेने
अपना हिस्सा।
क़िस्सागो
मेरे गाँव के बाहर
इक छोटा-सा तालाब...
सर्द रात में
सिकुड़ जाता है
ठण्ड से काँपते
थरथराता है।
सुबह कुनकुनी धूप
में जब
रज्जो, चांदो, कम्मो, सुल्ताना,
कपड़ों के गठ्ठर ले
आती हैं,
हँसते,
खिलखिलाते,
रोते, बड़बड़ाते,
बकते हुए गालियाँ,
क़िस्से सुनाती हैं।
बड़े चाव से
कान टिकाये
ख़ुद में घोल लेता
है
सब कहानी, क़िस्से, हिकायतें,
मोहब्बत, शिकवे, शिकायतें।
उसे नहीं पता
किसका मज़हब क्या है।
बस सबके मैल
धो देता है।
किसी की नादानी
पे हँसता है,
किसी की मजबूरी पे
रो देता है।
उनके चले जाने पर
कभी ख़ुद से
कभी...