‘Tumhari Upasthiti’, a poem by Vineeta Parmar

चुपचाप सोचना इस ब्रह्माण्ड का फैलाव
ठिठक जाओगे
हरदम के ही फैलाव से
जैसे तुम अटकते हो जीभ पर
मीठे और कड़वे का भेद जानती जीभ
अपनी तेज़ी में एकसार
मीठा और कड़वा ही बतलाती।

ये चाँद जो है न
पृथ्वी के शुरुआती दिनों का साथी है
ऊँट की तरह रोकता रहा धरती की चाल
इस मौसम ने तो बदलाव को सिखाया ही था
कि सिर्फ़ चाँद और समुद्र के साथ
उमड़ती-घुमड़ती स्मृतियों में
कहीं छुप गई थी हवा
जिसके साथ हम हवा में
हवा से करते फिरते थे सिर्फ़ बातें।

मेरे तुम्हारे होने का पहला क्रांतिकारी ईंधन की तरह आयी था ऑक्सीजन।
वो काँटे वाली मछली पहली रीढ़ लेकर पैदा ही हुई थी
कि उसकी छटपटाहट में
शामिल हुई थी
हवा की भाषा
सबसे सहज-सी भाषा
जब बहती है तब हर रोम-रोम में महसूस होता है
एक सम्वेदन
वो गर्म होगी फिर ठण्डी
जिसकी तासीर बदल देती है
हर का शरीर
हर एक सिहरन में
हिलते-डुलते पत्तों से
निकलते हैं नमूने
जिनसे
आग और पानी दोनों ही हवा का अनुवाद हैं।

पानी के बुलबुले में
तो जलती हुई
आग की साँसों में है ऑक्सीजन
उनकी धड़कनों में रहने वाला
ख़ुद नहीं जलता
बस जलाता ही है।

तुमने सबसे पहले सीखा आग जलाना
डरा कर भगा दिया जानवरों को
उसी गुफा में बची थी राख
जिसके कण्ठ से फूटी होगी कोई नदी।

आग का जलना नीचे से ऊपर चढ़ना
जैसे चढ़ा होगा आदम
लिया होगा पानी का स्वाद।

एवरेस्ट चढ़ने वाले नीचे से ऊपर पहुँच बोलते हैं आग की भाषा
पानी की भाषा कितनी सरल और सहज है
ऊपर से नीचे सिर्फ़ और सिर्फ़ बहना
स्मृतियों को मस्तिष्क से निकाल
हृदय में उतार बह जाती है
उसे नहीं ज़रूरत होती
प्रेम या नफ़रत की
वो एक-सी कहाँ रहती
हर पल, हर क्षण बहती है पानी की भाषा ।

पानी हो
माटी
तुम हो
हम हों
बिन हवा की ज़ुबानी
न ही कोई निशानी
माटी बनना हो
पानी बनना हो
बस हवा में घुलना होगा
जिसमें घुली थी तुम्हारी उपस्थिति।