‘Tumhein Bahut Zyada Karne Ki Zaroorat Nahi Hai’, a poem by Rahul Boyal
हर भोर के साथ शीतल हवा की बजाय
तुम्हारे बलात्कार की ख़बर क्यों आ जाती है?
हर दुपहरी सूरज के गरमाने से पहले ही
क्यों यह ख़बर बासी हो जाती है
और इससे मिलती-जुलती नयी ही कोई ख़बर
शाम के सिन्दूर के साथ एकमेक हो जाती है
क्यों?
ख़ामोशी कभी आवाज़ नहीं उठाती
अपने मन में अपना परिवार किसी को मत मानो
जब अपने घर में भी औरत का घर नहीं होता
अपने देश में औरत का कोई देश नहीं होता
तो तुम नादानी में ये कैसे सोच सकती हो
कि तुम्हारा कोई अपना बन सकता है।
तुम्हारी देह-यष्टि दोई मिष्टी से ज़्यादा कुछ नहीं है
तुम्हारा संताप उनके लिए मिथक से ज़्यादा कुछ नहीं है
स्कूल हो, घर हो, दफ़्तर हो,
चौराहा हो, गली हो, मोड़ हो, नुक्कड़ हो
तुम्हारे पाँव के निशानों को सूँघते हुए
तुम्हारी बातों से अंदाज़ लगाते हुए
कुत्तों की तरह आदमी जान जाते हैं
कि जीवटता दिखाने की सबसे मुश्किल घड़ी में
तुम्हें असमर्थ करने के लिए सबसे प्रभावी दाँत कौन-सा है।
तुम्हारी कोख में पली हुई ज़िन्दगी
तुम्हारे लहू से ही सिंचित काया
तुम्हारी ही कोख के ऐन नीचे नज़र गाड़े रखती है
जितनी दिलचस्पी एक आदमी दूसरी औरत में रखता है
उतनी दिलचस्पी तुम अपने आप में क्यों नहीं दिखातीं?
हक़ एक ऐसी रोटी है जो कोई देता नहीं है –
उसे ताप खाकर, संताप पीकर कमाना पड़ता है
वजूद एक ऐसा तमग़ा है जो छाती पर नहीं लगता-
उसे जेबों से निकालकर दिखाना पड़ता है।
तुम्हें जानना होगा थोड़ा-सा इतिहास
जगानी होगी थोड़ी-सी दिलचस्पी
जताना होगा थोड़ा-सा विरोध
उगाना होगा थोड़ा-सा इंक़लाब
दुनिया तुम्हारे पीछे आयेगी
तुम ग्वालिनों की तरह हाँक सकोगी
समाज के सब गंधाते भेड़ियों को
याद रखो!
जहाँ कहीं भी तुम्हारी अस्मिता जलती है
वहाँ किसी न किसी पुरुष के
बुझे हुए ईमान के अलामात मिलते हैं
जहाँ कहीं भी तुम्हारे बदन के टुकड़े मिलते हैं
वहाँ तुम्हारे ही समाज के घिनौने सुबूत मिलते हैं।
वो हाथ जिनकी मुट्ठियों में पैसा और क़ानून है – तोड़ डालो!
वो आँख जिनमें स्त्री माल-मसाला-लून है – फोड़ डालो!
इसके लिए तुम्हें बहुत ज़्यादा करने की ज़रूरत नहीं है
तुम रसोई से निकलकर बिस्तर पर आ जाओ
बिस्तर से निकलकर आँगन में आ जाओ
आँगन से निकलकर सड़क पर आ जाओ
सड़क पर भी आ जाए भेड़िया तुम्हारे पीछे-पीछे
तो उसके साथ बेझिझक रसोई में लौट आओ
और बग़ैर किसी ख़ौफ़ के खौलते तेल में भून डालो।
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