‘Vistaar’, a poem by Rachana Dixit

मेरे नैनों के नीलाभ व्योम में
एक चन्दा, एक बदली और
कुछ झिलमिल तारे रहते हैं,
सावन में
जब घनघोर घटाएँ उमड़-घुमड़कर
आँखों में खो जाती हैं
चन्दा-तारे सो जाते हैं
वर्षों मरु थे, जो पोखर सारे,
स्वयमेव ही भर जाते हैं
कभी शीत बहे तो
चन्दा-तारे ओढ़ दुशाला,
लोचन में सो जाते हैं
दिग्भ्रमित हुए कुछ खग-विहग
जब दृग में वासंत मनाते हैं
उषा किरण की रक्तिम डोरें
जाने-अनजाने,
नख में उलझाते जाते हैं
तब पलकों की झालर के कोनें
आप ही खुल जाते हैं
ओस के मोती सरक-सरककर
आँचल में भर जाते हैं
गर्मी की
तपती रातों में चख में खर उग आते हैं
भीष्म की सी शर शैय्या में,
तब चन्दा-तारे अकुलाते हैं
जाने क्या कुछ खोया मैंने
ये झिलमिल तारे पाने को
पर सावन रहा सदा नयनों में
जाने क्यों मधुमास न आया
अम्बर रहा सदा अँखियों में
पर मैंने क्यों विस्तार न पाया?
मैंने क्यों विस्तार न पाया!