वीरेन्द्र जैन

वीरेन्द्र जैन
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जाने कितने ही ख़्याल हर रात जुगनू बन टिमटिमाते रहते हैं,,,, और फिर ! यही जुगनू सुबह के सुनहरे उजालों में तितलियों का रूप लेकर ज़हन में महकने लगते हैं...!! इन्हें पकड़कर कैद करने को जी नहीं चाहता मेरा... सो, 'दिल की कलम से' लफ्ज़ों की कुछ आड़ी टढ़ी लकीरें खींच कर कविताओं की शक्ल दे देता हूं...!! और फिर दोनों हाथों से उड़ा देता हूं इन ख्यालों को खुले आकाश में... कौन जाने... क्या पता किसी और को भी तलाश हो इन एहसासों की...!!! ऐसे ही मेरे कुछ एहसास..."दिल की कलम से" !!

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