बादल सरकार के नाटक ‘एवम् इन्द्रजित्’ का भारतीय रंगकर्म में एक विशिष्ट स्थान है। मूलतः बांग्ला में लिखे इस नाटक का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। विभिन्न भाषाओं के रंगकर्म में इस नाटक ने बार-बार मंचित होकर प्रशंसा और प्रसिद्धि बटोरी है। इस नाटक की लोकप्रियता का कारण इसके कथा व् शिल्प में निहित है। युवा वर्ग की महत्त्वाकांक्षा, परवर्ती कुंठा व् निराशा का यथार्थपरक चित्रण इसमें किया गया है। नाटक अपनी निष्पत्ति में रेखांकित करता है कि मृत्यु का वरण समस्या का समाधान नहीं है। यह जानते हुए भी कि हमारे पास कोई सम्बल नहीं, हमें जीना है। नाटक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। हिन्दी में अनुवाद प्रतिभा अग्रवाल ने किया है। प्रस्तुत है इसी नाटक में आयी एक कविता—
क्लान्त-क्लान्त—मैं बहुत क्लान्त हूँ।
व्यर्थ प्रश्न यों ही रहने दो।
मिटती घनी मूक छाया में
मुझे अभी केवल सोने दो।
क्या करना है बातों का अम्बार लगाकर?
और बताओ क्या मिलना है
बीज तर्क के यूँ फैलाकर?
मैं विवेक से ऊब गया हूँ
आज बहुत ही क्लान्त हुआ हूँ।
सूने निर्जन की छाया में
मुझे अकेला सोने दो बस।
(ज्ञात मुझे इस धरा गर्भ में
छिपा अभी भी जाने क्या-क्या
पर मेरी सन्धान-साधना, क्लान्त हुई है।
धरती की जड़ता का बोझा।
अभी और है
पर मेरी प्रयत्न करने की
शक्ति आज तो क्लान्त हुई है।
मृत्यु तीर पर
जीवन की आशा में बैठी
सतत प्रतीक्षा, क्लान्त हुई है।)
जाओ, अपने प्रश्न साथ ले
तर्क विवेक सभी ले जाओ।
सोने दो मुझको
छाया के घोर-गभीर लोक में
मुझको सोने दो—मैं बहुत क्लान्त हूँ।