अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को सम्भाल रक्खा है
मोहब्बतों में तो मिलना है या उजड़ जाना
मिज़ाज-ए-इश्क़ में कब एतिदाल रक्खा है
हवा में नशा ही नशा, फ़ज़ा में रंग ही रंग
ये किसने पैरहन अपना उछाल रक्खा है
भले दिनों का भरोसा ही क्या, रहें न रहें
सो मैंने रिश्ता-ए-ग़म को बहाल रक्खा है
हम ऐसे सादा-दिलों को, वो दोस्त हो कि ख़ुदा
सभी ने वादा-ए-फ़र्दा पे टाल रक्खा है
हिसाब-ए-लुत्फ़-ए-हरीफ़ाँ किया है जब तो खुला
कि दोस्तों ने ज़ियादा ख़याल रक्खा है
भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब
कि जैसे तूने हथेली पे गाल रक्खा है
‘फ़राज़’ इश्क़ की दुनिया तो ख़ूबसूरत थी
ये किसने फ़ित्ना-ए-हिज्र-ओ-विसाल रक्खा है!
अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल 'रंजिश ही सही'